नीतीश कुमार ने 12 फरवरी को फ्लोर टेस्ट पास कर लिया. 129 मत उनके सरकार के पक्ष में आए, जबकि विरोधी दलों ने बहिर्गमन किया. नीतीश कुमार ने 18 साल में 9 बार शपथ ली है और वह कई बार पलट चुके हैं, इससे उनकी छवि पर भी दाग लग रहा है. हालांकि, इस बार नीतीश कुमार ने कहा है कि वो पहली जगह जहां थे, वहां वापस आ गए है और अब वहीं रहेंगे. बिहार की नयी सरकार के साथ ही बाहुबलियों की भी वापसी हुई है, क्योंकि  आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद एनडीए के साथ आ गए. आगामी लोकसभा चुनाव में ये फैक्टर कितना चलेगा या नीतीश को अभी पलटने का कितना नुकसान होगा, इन सभी बातों पर सियासी कयासबाजी शुरू हो चुकी है. 


नीतीश कुमार की छवि को ग्रहण


नीतीश कुमार की छवि धुंधली होती जा रही है, बल्कि धुंधली से भी अधिक खराब हो गयी है. एक समय नीतीश कुमार राजनीतिक शुचिता और नैतिकता का प्रतीक हुआ करते थे. नीतीश कुमार जब रेल मंत्री थे, तो एक रेल हादसा हुआ था जिसमें सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो गई थी, उन्होंने उसी समय अपने पद को त्याग दिया था. वही नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री के रुप में 18 साल के कार्यकाल में 9 बार शपथ ले चुके हैं. अब लोगों ने उनके कई तरह के मजाकिया नाम भी रख दिए हैं, सोशल मीडिया पर उनके बारे में कई तरह के मीम बनते हैं, यह सब कुछ बताता है कि उनकी छवि बहुत अधिक धूमिल हो चुकी है. बिहार की राजनीति में बाहुबली फैक्टर कोई नयी बात नहीं है औऱ इससे कोई बड़ा फर्क भी नहीं पड़ा है.



हर दल में इस तरह के लोग रहे हैं. नीतीश कुमार जब पहली बार आए थे तब उन्हें ठीक-ठाक सपोर्ट ऐसे लोगों से ही मिला था. नीतीश कुमार ने 2005 से बिहार में अपराध के चरित्र को बदलने का काम किया. बाहुबलियों ने भी यह समझा कि अब नीतीश कुमार का शासन है, अब हमें अपना मोडस-ऑपरेंडी या कार्यप्रणाली बदलने की आवश्यकता है, जो बाद में लैंड और लिकर यानी भूमि व शराब के धंधे में तब्दील होता चला गया. सिर्फ यह कहना कि जो बाहुबली इस बार सदन में दिखे हैं उसकी वजह से उनकी छवि धूमिल हुई है, ऐसा कहना गलत है, क्योंकि नीतीश कुमार की छवि संपूर्ण रुप से उनकी राजनीतिक कार्यशैली और राजनैतिक महत्वाकांक्षा की वजह से ऐसी हुई है. आनंद मोहन को रिलीज कराने में सरकार का बहुत बड़ा योगदान था, कानून में बदलाव किया गया था. शुरू में यह भी कहा गया कि ये राजद के दबाव में किया गया है लेकिन बाद में यह पाया गया कि राजद ने आनंद मोहन को अपने यहां एंट्री नहीं दी. 


बुलडोजर मॉडल बिहार में नहीं चलेगा


नीतीश कुमार के आने के बाद बिहार के सीवान जिले के शहाबुद्दीन के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई थी. उस समय में कई प्रकार के अपराध बिहार में हुए थे, सीवान में राजदेव रंजन जैसे पत्रकार की हत्या की गई. बाहुबलियों का एक बड़ा वर्ग समय को भांपते हुए राजनीति में आ गया और राजनीति में आकर एनडीए, जदयू, बीजेपी या नीतीश कुमार के साथ जुड़ गए. उनलोगों ने मिलकर अपने काम करने के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया. इस तरह की राजनीति बिहार में अभी तक नहीं थी, पिछले 8-10 सालों में नहीं देखा गया है कि बुलडोजर पहुंच रहा है, लेकिन चार-पांच दिनों से ये भी हो रहा है. बीमा भारती के बेटे को घर से उठा लिया गया. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. ये संकेत बिहार के लिए सही नहीं है. यूपी का बुलडोजर मॉडल बिहार में चलेगा, इसकी गुंजाइश दिख रही है, जो कि लोकतंत्र के लिए सही नहीं है.


छोटे खिलाड़ी महागठबंधन की मुश्किल


जहां तक ओवैसी का सवाल है, ओवैसी की राजनीति बिहार में सीमांचल से निकलकर उत्तर बिहार तक आ चुकी है. उनके जिस कार्यकर्ता की हत्या की गई है, वह भी उत्तर बिहार से आते हैं. सीमांचल में ओवैसी ने 5 या 6 विधायक जीते थे. उसके बाद गोपालगंज और खुरई के उपचुनाव में यह देखा गया था कि दोनों जगह महागठबंधन को हराने में ओवैसी की बड़ी भूमिका रही. गोपालगंज में ओवैसी को उपचुनाव में अच्छा-खासा वोट मिला था. ये जाहिर है कि वो वही वोट काटते हैं जो राजद का कोर वोटर है. एमवाई समीकरण में एम है, उसकी वजह से उन्हें अधिक वोट मिलता है. इससे भाजपा को नुकसान नहीं होगा. वहीं नीतीश कुमार को निजी तौर पर इसका नुकसान हो सकता है. ओवैसी की वजह से सबसे अधिक नुकसान राजद और गठबंधन को होगा. यदि बिहार में महागठबंधन को मजबूत स्थिति में रहना है तो सिर्फ कांग्रेस,आरजेडी या कम्युनिस्ट पार्टी से काम नहीं चलने वाला. इन्हें ओवैसी, नीतीश कुमार, पप्पू यादव जैसे लोगों पर विचार करना होगा, जो कि एक खास पॉकेट में अपना असर रखते है. 


जनसुराज की इस चुनाव में नहीं अहमियत


जन सुराज से प्रशांत किशोर, इस वक्त जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं, ये हाई क्लास की राजनीति है. हाई क्लास का मतलब है कि वो बातें तो बड़ी-बड़ी कर रहे है, लेकिन उनका एजेंडा अभी भी उनके पास नहीं है और वो एक खास जाति के नेता के रुप में देखे जा रहे हैं. वे एक तरह के एलीट किस्मा के नेता हैं, और ऐसा नहीं लग रहा है कि बिहार की ओबीसी और ईबीसी की आबादी फिलहाल उनको अपना नेता मानेगी. जन-सुराज पार्टी को राजनीति करने में थोड़ा समय लग सकता है. ये पार्टी बहुत ही हाई लेवल की बातें कर रही है, जो बिहार के लोगों को, आम मतदाता को बहुत हद तक समझ में नहीं आ रही और समझ में आ भी रही है तो अभी उनको परखा जा रहा है. लेकिन बाकि के लोग पहले से ही जांचे जा चुके है.


ओवैसी सीमांचल में अपनी शक्ति साबित कर चुके हैं,  कुछ हद तक नॉर्थ बिहार में भी अपनी शक्ति साबित कर चुके हैं. ओवैसी से बीजेपी को किसा प्रकार का कोई नुकसान नहीं है, ओवैसी से आरजेडी को नुकसान है.तेजस्वी यादव को बिहार के छोटे दलों को साथ लाने का प्रयास करना चाहिए, चाहे वो ओवैसी हों, वीआईपी के मुकेश सहनी हों या फिर पप्पू यादव जैसे लोग. अगर इस तरह का महागठबंधन वो बना ले जाते हैं तो फिर जरूर बिहार में एनडीए को सोचना पड़ेगा. 





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