बहुत कम ही ऐसे नेता होते हैं, जिनका आदर-सम्मान प्राय: सभी दलों में बना रहता है. रघुवंश प्रसाद सिंह ऐसे ही सादगी पसंद और संजीदे नेता के रूप में न सिर्फ सियासी हलक़ों में, बल्कि जन -सामान्य के बीच भी प्रतिष्ठित रहे. उनकी मामूली वेशभूषा या ग्रामीण बोल-व्यवहार को देख कर यह पता नहीं चल पाता था कि देहाती-से नज़र आने वाले इस व्यक्ति में कितनी शैक्षणिक योग्यता और वैचारिक दक्षता छिपी हुई है.


एक साइंस ग्रेजुएट और गणित में मास्टर डिग्री प्राप्त रघुवंश प्रसाद सिंह से बातें करते समय जब सामाजिक-आर्थिक हालात से जुड़े प्रसंग निकल आते थे, तब ऐसे विषयों में भी उनकी गहरी पैठ का अंदाज़ा होने लगता था. यही कारण है कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में उन्होंने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) की न सिर्फ़ परिकल्पना की, बल्कि उसे ज़मीन पर सफलतापूर्वक उतारने का कौशल भी दिखाया. मुझे अपनी पत्रकारिता के वे दिन याद है, जब रघुवंश बाबू से कई दफ़ा मिल कर इस योजना पर उनसे विस्तृत बातचीत होती रही थी. मनरेगा को राज्यों में सह-सही कार्यान्वित कराने के लिए उन्होंने खुद को जिस तरह झोंक रखा था, वैसा लोकहित से गहराई में जुड़ा हुआ कोई ज़मीनी नेता ही कर सकता है.


मुझे वो सारे प्रकरण भी याद आते हैं, जब बिहार के विकास से संबंधित केंद्रीय योजनाओं की शिथिलता या विफलता पर राज्य सरकार को ताबड़तोड़ चिट्ठियाँ भेज -भेज कर वह चेताते रहते थे कि योजना-राशि समय पर खर्च नहीं होना उन्हें क़तई मंज़ूर नहीं. जब वह केंद्र में मंत्री नहीं रहे और मनरेगा सहित ग्रामीण सड़क योजनाओं में भ्रष्टाचार की खबरें उन्हें मिलती थीं, तब उनकी पीड़ा और छटपटाहट मैंने देखी थी. मुझसे एकबार दुखी हो कर उन्होंने कहा था - 'सरकार में ऐसे-ऐसे लोग पाले-पोसे जा रहे हैं कि वे सारा सत्यानाश कर के छोड़ेंगे.''


समाजवादी धारा से इनके जुड़ने की कहानी भी ग़ौर करने लायक़ है. साठ के दशक में जब वह सीतामढ़ी के एक कॉलेज में गणित के प्राध्यापक थे, तभी वह डॉ राम मनोहर लोहिया के विचारों से अत्यंत प्रभावित हो कर उनकी पत्रिका ‘चौथा खंभा’ में वैचारिक लेखन करने लगे थे. उसी दौरान बिहार के प्रखर समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर से रघुवंश बाबू का न सिर्फ़ संपर्क हुआ, बल्कि कुछ ही समय बाद कर्पूरी ठाकुर के साथ वह सक्रिय राजनीति में उतर गए.


विचार और कर्म - दोनों मामलों में सच्चे समाजवादी जैसा अनुशासन अपना कर समाज के दलित, वंचित और पिछड़े समुदायों के हक़ में संघर्ष करने की प्रेरणा इन्हें लोहिया और कर्पूरी से ही मिली. फिर जब पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर नहीं रहे, तब बिहार में सन् 74 के छात्र आंदोलन से उभरे युवा नेता लालू प्रसाद यादव के साथ अच्छे-बुरे दिनों में लगभग बत्तीस वर्षों तक इसलिए खड़े रहे, क्योंकि ‘सामाजिक न्याय’ से जुड़े संघर्ष की गुंजाइश उन्हें यहीं दिखी थी.


यह बात और है कि रास्ता भटक चुके लालू यादव के ‘सामाजिक न्याय’ वाले आंदोलन से मोहभंग जैसी स्थिति में भी रघुवंश बाबू ने लालू यादव का साथ नहीं छोड़ा. इस वजह से उनकी आलोचना भी खूब हुई कि वह अपने मूल स्वभाव के विपरीत भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे लालू यादव का बचाव किया.


मैंने यही सवाल उनसे एकबार पूछा था. उनका जवाब था - ‘’ चारों तरफ़ आँखें दौड़ाइये. कहीं आप को भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति या सरकार नज़र आती है ? मैं जहाँ भी हूँ, वहीं से ज़रूरतमंद लोगों के लिए ईमानदारी से कुछ कर पाने का रास्ता ढूँढने में लगा रहूँ, यही बहुत है. ‘’ यह जवाब सुन कर उनके सही मायने में लोकप्रतिनिधि होने की झलक उनमें मिली थी मुझे. विडंबना देखिए कि परिवारवाद से पूरी तरह चिढ़ने वाले रघुवंश बाबू ने लालू-राबड़ी के नये पारिवारिक नेतृत्व को ‘अब और नहीं’ कह कर लालू जी से तब विदा ली, जब उनके जीवन का अंतकाल आ गया.


यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार के छात्र आंदोलन और जेपी आंदोलन से लेकर कई राजनीति/ सामाजिक संगठनों तक में सक्रिय रहे अपने सगे भाई रघुपति के लिए उन्होंने कभी किसी से चुनावी टिकट की मांग नहीं की. वह चाहते तो ऐसा बिल्कुल संभव था. सच पूछिए तो बिहार की राजनीति में वह अपनी तरह के ऐसे अकेले राजनेता थे, जिसने कभी किसी मद या अहंकारवश लोगों से किसी क़िस्म की दूरी नहीं बनाई.


केंद्रीय मंत्री के रूप में सीमित समय में ही कमज़ोर तबक़ों/श्रमिकों और ख़ासकर ग्रामीण सड़कों के लिए उन्होंने जितने समर्पण के साथ काम किया, वैसा बहुत कम दिखता है. उनकी यह ख़ासियत लोग शायद ही कभी भूल पाएँगे कि लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में रहते हुए भी अक्सर वह अपने दल या लालू यादव के कई फ़ैसलों से असहमत हो कर खरी-सुना देते थे. तब वह अपने दलीय साथियों की आलोचनाओं से भी बेपरवाह रहते थे.


लालू यादव चूँकि रघुवंश बाबू की साफ़गोई और तेवर से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, इसलिए यदा-कदा पैदा हो जाने वाली तनातनी को वह सम्हाल लेते थे. लेकिन लालू यादव के जेल चले जाने के बाद उनके दोनों पुत्रों की अगुआई वाली आरजेडी, या कहें पार्टी के नये सूत्रधार ने रघुवंश बाबू की क़दर में कोताही बरतनी शुरू कर दी. हालत ये हो गयी कि इनके संसदीय क्षेत्र में भी विवादास्पद या कथित दबंगई वाले व्यक्ति को पार्टी में शामिल करने और चुनावी टिकट देने की तैयारी कर ली गयी.


आरजेडी नेतृत्व का ऐसा रवैया अस्वस्थ अवस्था में पड़े रघुवंश बाबू को अंदर से आहत कर गया. बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इनके निधन का नुक़सान आरजेडी को उठाना पड़ सकता है. लेकिन मेरे ख़याल से रघुवंश बाबू का नहीं रहना, बिहार की राजनीति का भी एक बड़ा नुक़सान है. ऐसा इसलिए, क्योंकि जनप्रतिनिधि वाली जैसी विशिष्टता उनमें थी, वैसी अब दुर्लभ ही दिखती है.