2009 में, दिल्ली के जिस साप्ताहिक अखबार में मैं काम करता था, उसमें मेरी एक रिपोर्ट “रंगनाथ मिश्र कमिशन की रिपोर्ट” प्रकाशित (लीक) हुई. उसी साल शीतकालीन सत्र में, संसद के दोनों सदनों में भारी हंगामा हुआ. मजबूरन, सालों से लंबित यह रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी गयी. 14 साल बीत गए, वो रिपोर्ट कहां है, किस हाल में है, किसी को नहीं पता. यह बात इसलिए कि जब बिहार कास्ट सर्वे की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो पता चला कि मुसलमानों को न सिर्फ जातियों में बाँटा गया है बल्कि उनमें भी सवर्ण है, उनमें भी ओबीसी है, लेकिन गौर करेंगे तो पाएंगे की उनमें एससी नहीं है. आखिर क्यों नहीं है? और इससे भी बड़ा आश्चर्य यह कि बिहार या देश के तमाम मुस्लिम नेताओं, मुस्लिम बुद्धिजीवियों के मुंह से इस बारे में एक शब्द भी आपने नहीं सुना होगा कि यथार्थ चाहे जो हो, इस्लाम में जाति का कोई कांसेप्ट नहीं है तो फिर बिहार कास्ट सर्वे में मुसलमानों को कैसे जातियों में बाँट दिया गया? 

 

सवर्ण मुस्लिम, पिछड़ा मुस्लिम, दलित मुस्लिम कहां? 

 

बहरहाल, बिहार कास्ट सर्वे की रिपोर्ट में 17.7% मुसलामानों की संख्या बताई गयी है जिसमें से करीब 5 फीसदी सवर्ण और बाकी का पिछड़ा मुस्लिम है. गौरतलब है कि इस्लाम अपनी बुनियाद में जाति की बात नहीं करता. हालांकि, हिन्दुस्तान में भी मुसलमानों के बीच जातियां है, उपजातियां है, जम कर जातीय भेद है. इस तथ्य को देश की दो कमेटी (सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमिशन) समेत पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक और पूर्व राज्यसभा सदस्य अली अनवर अंसारी से बार-बार अपनी रिपोर्टों, किताबों के जरिये सामने रखा है. अली अनवर अंसारी ने एक बार मुझसे कहा था कि आर्टिकल 341 के तहत आज भी क्यों मुसलमानों के साथ नाइंसाफी हो रही है. उनकी पुरानी मांग है कि इस आर्टिकल के तहत वर्णित 1950 वाले राष्ट्रपति अध्यादेश को भी खारिज कर दिया जाए जो मुसलमानों को शिड्यूल कास्ट स्टेट्स देने से रोकता है जबकि शुरुआत में सिर्फ हिन्दुओं और बाद में संशोधन के जरिये नव बौद्धों और सिखों को भी शिड्यूल कास्ट स्टेट्स का दर्जा दे दिया गया है.


 

अंसारी अपनी नई पुस्तक “संपूर्ण दलित आन्दोलन: पसमांदा तस्सवुर” में इस मुद्दे को बहुत ही बारीकी से रखते हुए समझाते हैं कि इस वक्त देश में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है, जिसे पहले भी सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट के जरिये बता दिया है. तो सवाल है कि क्या बिहार में राजद और जद(यू) 17% मुसलमानों को सिर्फ अपना वोट बैंक बनाएंगी या फिर उनके लिए कुछ ठोस कदम भी उठाएगी, जैसाकि रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश किया है. इस सिफारिश में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को 10% आरक्षण देने और 1950 प्रेशीडेंशियल आर्डर को हटाने की बात कही गयी है. क्या ऐसे किसी भी सिफारिश पर बिहार की सरकार कोई कदम उठाएगी?

 

क्या कहता है राष्ट्रपति का अध्यादेश?  

 

बिहार में भी मुसलामानों को 27% ओबीसी आरक्षण का लाभ मिल रहा है. लेकिन, 17.7% मुसलमानों में जो करीब 12% मुसलमान है, वही पिछड़े हैं और उन्हें इसी कोटे से लाभ मिल रहा है. बहरहाल, भोपाल में जब प्रधानमंत्री मोदी पसमांदा मुसलमानों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक सच्चाई को स्वीकार कर रहे थे तब क्या वे भूल गए थे कि रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने 2007 में (यूपीए सरकार द्वारा बनाया गया कमीशन) ही अपनी रिपोर्ट के जरिये मुस्लिमों की हालत हिन्दू दलितों के बराबर बता दी थी और इसके लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करने की बात कही थी. तो सवाल यही है कि जब प्रधानमंत्री मुस्लिमों की दुर्दशा के लिए चिंतित होते हैं या बिहार सरकार कास्ट सर्वे को जनता के विकास के लिए जब आवश्यक बताती है और मुसलमानों तक के जातियों की गणना कर लेती है तब क्या प्रधानमंत्री जी हों या बिहार सरकार, मुसलमानों की भलाई के लिए रंगनाथ मिश्रा कमीशन द्वारा सुझाए सुफारिशों पर भी अमल करेंगे? याकि कम से कम बिहार सरकार रंगनाथ कमीशन को ले कर सवाल तो कर ही सकती है, जो वह करती नहीं दिख रही है.  

 

दलित केवल हिंदुओं में नहीं

 

राष्ट्रपति अध्यादेश, 1950 का उल्लेख भारतीय संविधान में है. यह अध्यादेश कहता है कि सिर्फ हिन्दू धर्म के दलितों को ही एससी स्टेट्स दिया जा सकता है. वैसे, जब वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने इस सूची में बौद्ध दलितों को भी शामिल किया जिन्हें नव बौद्ध कहा गया. इससे पहले सिख दलितों को भी इस सूची में शामिल कर लिया गया था. इसके बाद इस लिस्ट से बाहर रह गए थे मुस्लिम, ईसाई, जैन और पारसी. मनमोहन सिंह सरकार ने जब सच्चर कमेटी बनाई थी तब इस कमेटी ने जो रिपोर्ट दी, वह मुस्लिम समुदाय की बदतर सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति को बताती थी.

 

इसके बाद, मनमोहन सिंह सरकार ने ही रंगनाथ मिश्रा कमीशन का गठन किया, जिसने 2007 में अपनी रिपोर्ट दी. इस रिपोर्ट में साफ़ कहा गया है कि मुसलमानों के बीच भारी जातिगत भेदभाव है और मुस्लिम समुदाय के भीतर जो अतिपिछड़ी जातियां हैं, उनकी हालत हिन्दू दलितों से भी बदतर है और इसी आलोक में इस कमीशन ने उनके लिए 10 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की. साथ ही, इस कमीशन ने 1950 प्रेसिडेंशियल आर्डर को हटाने की भी सिफारिश की क्योंकि कमीशन का मानना था कि यह अध्यादेश धार्मिक आधार पर लोगों की सामाजिक-शैक्षणिक-आर्थिक स्थिति की सच्चाई को देखे बिना भेदभाव करता है. 

 

कास्ट सर्वे से बालाकृष्णन कमेटी तक 

 

सबसे बड़ा सवाल है कि बालाकृष्णन कमेटी बनाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? तो यह जरूरत इसलिए पड़ी कि सुप्रीम कोर्ट ने रंगनाथ आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने को लेकर केंद्र सरकार से जवाब माँगा था और इस मामले पर अब सुनवाई जारी है. सवाल है कि बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली नई कमेटी क्या करेगी? मोदी सरकार द्वारा गठित यह कमेटी इस बात की जांच करेगी कि धर्मांतरण के बाद भी क्या लोगों के साथ सामाजिक भेदभाव होते रहते हैं? तमिलनाडू के एक सामाजिक कार्यकर्ता थॉमस फ्रान्कलिन (इसाई दलितों को एस सी स्टेट्स दिए जाने के समर्थक) ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बार बात करते हुए (2009 में) यह बताया था कि दक्षिण के कई राज्यों में आज भी ईसाईयों के दो कब्रिस्तान होते हैं, जहां एक कब्रिस्तान में बड़ी जाति के ईसाइयों तो दूसरे कब्रिस्तान में धर्मांतरण करने वाली छोटी और पिछड़ी जातियों के क्रिशिचियन को दफनाया जाता है.

 

यानी, उनका मानना था कि भले ही धार्मिक स्तर पर क्रिश्चियन धर्म में जातिगत भेदभाव की परिकल्पना नहीं है, लेकिन प्रायोगिक स्तर पर भारत में यह भेद जबरदस्त रूप से है. इस्लाम में भी, हिन्दुस्तान के भीतर ऐसा ही है. सतीश देशपांडे और गीतिका बापना ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के लिए एक रिपोर्ट बनाई थी, जिसमें कहा गया था कि शहरी क्षेत्रों में 47 फ़ीसद दलित मुस्लिम ग़रीबी रेखा से नीचे हैं, जबकि ग्रामीण इलाक़ों में 40 फ़ीसद दलित मुस्लिम और 30 फ़ीसद दलित ईसाई ग़रीबी रेखा से नीचे हैं और इस बात की ताकीद रंगनाथ मिश्र कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर की है. ऐसे में, नई कमेटी क्या नए तथ्य लेकर सामने आएगी, यह भी सवाल है और कास्ट सर्वे से बिहार के मुसलमानों या देश के मुसलमानों को क्या मिलने जा रहा है, इसका भी सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]