सफलता का समीकरण बहुआयामी होता है. हर रंग और पल आनंद उठाते हुए आगे बढ़ना सफलता है. एक ही धुन में पूरा जीवन खपाकर पाई जाने वाली उपलब्धि को संपूर्ण सफलता नहीं माना जा सकता है.


सहजता से छोटे-छोटे प्रयासों के साथ आगे बढ़ने और उन्हंे जीने से सही सफलता सिद्ध होती है. भगवान कृष्ण के बचपन से लेकर द्वारकाधीस बनने की यात्रा में वे हर पल को उतने ही उत्साह से जीते दिखाई पड़ते हैं जैसे हम किसी लक्ष्य के पूरे होने पर अनुभव करते हैं. जबकि भगवान कृष्ण का लक्ष्य निष्काम कर्म करना ही था.


जो लोग लक्ष्य में उलझ जाते हैं वे सफल होकर उसकी उतनी खुशी अक्सर नहीं मना पाते हैं जैसे कोई साधारण व्यक्ति मनाता है.


सिकंदर विश्व विजय करता हुआ भारत पहुंचा और यहां कई राजाओं को भी हराया. उसकी मृत्यु रास्ते में वतन लौटने समय हो गई वह आजीवन लक्ष्यसिद्धि में लगा रहा लेकिन सफल होकर भी आनंद से वंचित रहा.

सिंकदर ने भारत में एक साधु से पूछा कि वह उस साधु के लिए क्या कर सकता है तो साधु बोला- मेरे और धूप के बीच से हट जाओ. अर्थात् साधु प्रत्येक पल को आनंद से जीना चाहता था. वह सफलता का प्रत्येक पल अनुभव करना चाहता था. इसके लिए उसने मस्तिष्क को अनावश्यक तथ्यों और लक्ष्यों से भरकर भी नहीं रखा हुआ था.