Mulayam Singh Yadav: लंबे समय से बीमार चल रहे समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) संस्थापक मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) का 82 वर्ष की उम्र में सोमवार को निधन हो गया. मुलायम सिंह को जानने वाले लोग आज उन्हें अलग-अलग तरीके से याद कर रहे हैं. नेताजी के नाम से अपनों के बीच में लोकप्रिय रहे मुलायम सिंह को 'धरतीपुत्र'(Dhartiputra) के नाम से भी जाना जाता है. आगे जानते हैं आखिर क्यों पड़ा नेताजी का नाम 'धरतीपुत्र'...


बचपन से ही मुलायम में क्रांतिकारियों वाला गुण मौजूद था


मुलायम सिंह को मिली इस उपाधि के बारे में जानने के लिए उनके राजनीतिक जीवन पर रोशनी डालना जरूरी है. आजादी से पहले जन्म लेने वाले मुलायम सिंह यादव में बचपन से क्रांतिकारियों वाला गुण मौजूद था और इसकी पुष्टि यह बात करती है कि वह महज 14 साल की उम्र में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ निकाली गई रैली में शामिल हो गए थे. बचपन का उनका यह स्वभाव उन्हें राजनीति का चमकता सितारा बना देगा, यह बात उन्हें भी पता नहीं थी. 


गुरु द्वारा तोहफे में दी गई सीट से 7 बार बने विधायक


मुलायम सिंह के पिता चाहते थे कि उनका बेटा पहलवान बने लेकिन उनकी किस्मत उन्हें पहलवानी तक सीमित नहीं रखना चाहती थी. बात 1962 की है जब मुलायम सिंह कुश्ती प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए पहुंचे थे. मुलायम की पहलवानी के कौशल ने वहां मौजूद चौधऱी नत्थू सिंह यादव को काफी प्रभावित किया और जिसके बाद नत्थू सिंह ने मुलायम को अपने साथ रख लिया. नत्थू सिंह ने उनकी मुलाकात न सिर्फ राम मनोहर लोहिया से करवाई थी बल्कि तोहफे के रूप में अपने शिष्य को यूपी की जसवंतनगर सीट दे दी और उन्हें 1967 में वहां से लड़ने को कहा गया. नत्थू सिंह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे. मुलायम अपने गुरु की उम्मीद पर खरे उतरे और चुनाव में जीत हासिल की. और यहां तक कि इसी सीट से सात बार विधानसभा का चुनाव जीता था.


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इसलिए कहलाए 'धरतीपुत्र'


मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में कदम रखने के बाद समाज में मौजूद बुराइयों को दूर करने पर ध्यान दिया. चाहे छुआछूत हो या फिर जातिप्रथा की बात, उन्होंने हमेशा इसका विरोध किया. बताया जाता है कि अपने इसी प्रयास के तहत सैफई में छोटे भाई की शादी में उन्होंने वाल्मिकी और दलित समाज के लोगों को घर पर दावत दी थी. उन्होंने पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के लिए भी काम किया. मजदूर वर्ग के हितों के लिए आवाज उठाई. उन्हें समाज के इन तबकों का खूब समर्थन मिला और इसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने अपने गुरु से मिली सीट पर 1967,1974 और 1977 के मध्यावधि चुनाव में जीत हासिल की. समाज के कमजोर वर्गों की आवाज बनने के कारण उन्हें 'धरतीपुत्र' के नाम से जाना जाने लगा.


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