नोएडा, बलराम पांडे। सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी मजदूरों के पलायन का सिलसिला थम नहीं रहा है। पंजाब , हरियाणा और दिल्ली से मजदूर रेल की पटरियों के सहारे यूपी और बिहार लिए निकल पड़े हैं। इनका कहना है सड़कों और हाईवे से गुजरते हुए पुलिस का डंडा खाना पड़ता है और क्वॉरेंटाइन होने का भी अंदेशा रहता है। इसके अलावा सड़कों की भूलभुलैया उलझने से बेहतर सीधी जाती इन पटरियों के सहारे अपनी मंजिल पर पहुंच जाए। कि रास्ते में पड़ने वाले स्टेशनों से इनकी पानी की व्यवस्था हो जाती है और गांव वाले इन्हें भोजन करा देते हैं। जिससे उनकी यात्रा में कुछ सहूलियत हो जाती है। कड़ी धूप होने पर पेड़ों की शीतल छाया सुकून देती है। ये सुबह और रात भर चलते हैं अपनी मंजिल की ओर


जिस रेल की पटरी ने कुछ महीने पहले जीवन को पटरी पर लाने के लिए बड़े गांव की तरफ रुख किया था आज उसी रेलवे ट्रैक को पकड़कर मजदूर पैदल ही घर लौट रहे हैं। मजदूरों की ज़िंदगी पटरी से उतर गई है। पंजाब से चलकर यूपी के गोरखपुर को जाने वाले मजदूर जितेंद्र का कहना है कि पेट में भूख है, जेब में पैसे नहीं है, ऊपर से गांव में परिवार परेशान है...मरता क्या न करता, जान है तो जहान है। भूखे मरने से क्या फायदा सड़क मार्ग से निकले तो पुलिस ने लाठियां भांज दी फिर रेलवे ट्रैक को अपना रास्ता बनाया और पंजाब से दिल्ली पहुंचे तो वापस पुलिस ने पकड़ कर 60 किलोमीटर पीछे छोड़ दिया हिम्मत नहीं आ रही और फिर रेलवे ट्रैक को पकड़कर पैदल ही गोरखपुर जंक्शन को अपनी मंजिल बना लिया।


यह कहानी पहले एक प्रवासी मजदूरों की नहीं है, यहां से निकलने वाले हर मजदूर की एक ही कहानी है कि उसे घर पहुंचना है। लॉक डाउन में इन मजदूरों ने जो दर्द मिला है उसे बयां करना इनके लिए इतना आसान नहीं है। कहीं मकान मालिकों ने ताला बंद कर दिया तो कहीं मालिकों ने रोजगार और तनख्वाह देने से मना कर दिया। अब इनका यही कहना है कि उसके लिए दिन दूर है पर अंधेर नहीं जैसे तैसे आज नहीं तो कल वह घर पहुंच ही जाएगा।


इन मजदूरों की परेशानी को देखकर इनके दर्द को कम करने वाले मददगार भी इनको देखकर खाने के पैकेट बनवा कर भोजन की व्यवस्था करने में जुट गए। 30 साल के सुनील खारी पैर से विकलांग हैं फिर भी इनके जज्बे को सलाम है। सुनील अपनी गाड़ी में खाने के पैकेट भरवा कर इन मजदूरों को रेलवे ट्रैक पर ही बांटने पहुंच गए।