देहरादून. पहाड़ों की रानी मसूरी के पास जौनपुर, जौनसार व रवाई घाटी में माघ के महीने में मनाये जाने वाला मरोज त्योहार शुरू हो गया है. इस त्योहार के दौरान हर घर में विभिन्न तरह के पकवान बनाए जाते हैं. मरोज का त्योहार कई पीढ़ियों से मनाया जा रहा है. इस दौरान गांव से बाहर रहने वाले सभी लोग अपने घर आते हैं. स्थानीय वाद्य यंत्रों के साथ इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है.


मरोज महोत्सव के दौरान पूरे एक महीने तक हर गांव के पंचायती आंगन के साथ घरों में लोक संस्कृति की झलक दिखाई देती है. पर्व के दौरान यहां की अनूठी परंपरा और मेहमानवाजी पर विशेष जोर रहता है. इस त्योहार के दौरान मेहमानों, रिश्तेदारों, ग्रामीणों को विशेष तौर पर बुलाया जाता है. पूरे महीने दावतों का दौर चलता है. पर्व के लिए प्रत्येक घर मे मुख्य भोजन के रूप में बकरे का मांस परोसने की परंपरा है.


हर गांव में है पांडवों का मंदिर
जौनपुर, रवाई और जौनसार बाबर के निवासी खुद को पांडवों का वंशज मानते हैं. हर गांव में एक पांडव का मंदिर है जो इसका पुख्ता प्रमाण है. प्रत्येक त्योहार मनाने से पहले पांडव मंदिर में पूजा होती है. मान्यता के अनुसार पांडव जुए में कौरवों से जब द्रौपदी को हार गये थे तो दुशासन और दुर्योधन ने द्रौपदी का चीर हरण कर किया था. द्रौपदी ने भरी सभा में अपने केश खोलते हुए शपथ ली थी कि दुशासन के मरने के बाद उसके खून से केश धोकर ही वह अपनी वेणी गूंथेंगी. मरोज त्योहार के दिन घर की वरिष्ठ महिला बकरा कटने के बाद ही पूजा अर्चना करने के बाद अपने केश की वेणी गूंथती हैं.


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