Independence Day 2022: देश आजादी का 75वां वर्ष मना रहा हैं. भारत को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त कराने के लिए सबसे पहले अंग्रेजों से बगावत करने वाले देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी शहीद मंगल पांडेय को जरूर याद किया जाएगा. देश मंगल पांडेय की कुर्बानी को हमेशा याद रखेगा. ऐसे में स्वतंत्रता दिवस पर पेश है प्रथम शहीद मंगल पांडेय के गांव नगवां से एक रिपोर्ट.


मंगल पांडेय ने दो अंग्रेजों का मारा


तस्वीरें 1857 के गदर के नायक मंगल पांडेय के गांव नगवां के मंगल पांडेय की याद में बने स्मारक की है. जहां शहीद मंगल पांडेय को याद कर उनको नमन करने के लिए स्मारक में उनकी एक आदमकद मूर्ति स्थापित की गई है. तस्वीरों पर गौर करें तो तस्वीरें गवाह है जो बता रही है कि आज इस स्मारक की हालत क्या है ? मंगल पांडेय विचार मंच के अध्यक्ष की माने तो पश्चिम बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडेय फौज के सिपाही थे. उन्होंने देश को आजाद कराने और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अंग्रेजी फौज द्वारा दी गयी कारतूस जिसमें गाय और सुअर की चर्बी थी जिसे फायर करने के लिए उसे दांत से नोचा जाता था. मंगल पांडेय ने अंग्रेजों का विरोध कर विद्रोह कर दो अंग्रेजों की हत्या कर दी.


जिसके बाद सेना के कोर्ट ने मंगल पांडेय को फांसी की सजा सुना दिया और उन्हें फांसी दे दी गयी. उसके बाद अंग्रेजों ने एक फौज भेजकर मंगल पांडेय के गांव नगवां में खास कर के पांडेय लोगों के घरों में आग लगा कर जलाना शुरू कर दिया. इस डर से कई पांडेय परिवार गांव छोड़कर कहीं और अपनी टाइटल बदल कर रहने चले गए.


मंगल पांडेय के प्रपौत्र अनिल पांडेय ने ये बताया


देश को अंग्रेजी हुकूमत से सबसे पहले आजाद कराने के लिए अंग्रेजी फौज के साथ विद्रोह करने वाले शहीद मंगल पांडेय का जन्म बलिया के नगवां में हुआ था. जहाँ उनके प्रपौत्र अनिल पांडेय की माने तो मंगल पांडेय ब्राह्मण परिवार से थे और पूजा पाठ भी किया करते थे. उन्हें अपने साथी द्वारा पता चला कि सेना के बंदूक में जो कारतूस लगाया जाता है उसे दांत से खींचकर लगाया जाता है. उसमें गाय और सुअर की चर्बी लगी होती थी. उन्होंने उसका उपयोग करने से मना कर दिया था, जिसके बाद उन्होंने सेना में विद्रोह पैदा किया. सन 1800 की चिंगरी जो उन्होंने सेना में जलाई और अंग्रेज सिपाही मारा.


इसके बाद उनकी धर पकड़ की गई और फिर उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. फांसी की सजा उनको 29 मार्च को ही देनी थी लेकिन आस-पास के जल्लाद उनको फांसी देने से इंकार कर दिए. उन्हें फांसी देने के लिए कलकत्ता से जल्लाद को बुलाया गया लेकिन उसे भी ये नहीं बताया गया कि फांसी किसको देनी है. आखिरकार 8 अप्रैल 1857 को उनको बैरकपुर में फांसी दे दी गई. उन्होंने बताया कि इसके बाद 1857 की चिंगारी पूरे देश में फैल गयी जिसके बाद 1942 में अग्रेजों ने कई बार गांव वालों को परेशान किया ताकि सभी यहां से कहीं और जाकर बस जाएं. 


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