कश्मीरी पंडितों के सब से बड़े संगठन पनुन कश्मीर ने कश्मीरी पंडित बिल, 2022 को खारिज कर दिया है. संस्था ने इसे नरसंहार मान्यता और मातृभूमि की मांग को कुचलने का प्रयास बताया है. नरसंहार प्रभावित कश्मीरी हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रमुख संगठन, पनुन कश्मीर ने राज्यसभा में लंबित कश्मीरी पंडित (आश्रय, पुनर्स्थापन, पुनर्वास और पुनर्स्थापन) विधेयक, 2022 को कड़ा विरोध किया है. 

अध्यक्ष डॉ. अजय चुंगू, वरिष्ठ उपाध्यक्ष शैलेंद्र आइमा, उपाध्यक्ष दया कृष्ण कौल और पनुन कश्मीर के उपाध्यक्ष एवं कानूनी मामलों के प्रमुख प्रो. टी गंजू द्वारा जारी एक संयुक्त बयान में इस विधेयक को "राजनीतिक रूप से शरारती, कानूनी रूप से अस्थिर और नैतिक रूप से खोखला" बताया गया है.

अजय चुंगू ने क्या कहा?

अध्यक्ष डॉ. अजय चुंगू ने कहा, "तथाकथित कश्मीरी पंडित विधेयक एक कदम आगे नहीं, बल्कि सामान्य पुनर्वास की आड़ में नरसंहार के मुद्दे को दबाने की एक सोची-समझी चाल है. यह विधेयक न्याय नहीं देगा, बल्कि हमारे विस्थापन को अंतिम रूप देगा, हमारे नरसंहार को कानून की नज़रों से ओझल कर देगा, और हमारे जातिये सफाए की योजना बनाने वाली ताकतों की ऐतिहासिक और राजनीतिक ज़िम्मेदारी को मिटा देगा."

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पनुन कश्मीर दशकों से कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को मान्यता देने और उस पर मुकदमा चलाने तथा न्याय, स्मारक और उसकी पुनरावृत्ति न होने के लिए तंत्र स्थापित करने हेतु एक राष्ट्रीय कानून की मांग कर रहा है. डॉ. चुंगू ने ज़ोर देकर कहा, "हम कोई कल्याणकारी विषय नहीं हैं; हम नरसंहार के एक राजनीतिक क्षेत्र हैं. यह विधेयक उस सच्चाई को छुपाता है और इस प्रकार अस्वीकृत है."

शैलेंद्र आइमा ने क्या कहा?

वरिष्ठ उपाध्यक्ष शैलेंद्र आइमा ने इस निजी विधेयक को अचानक पारित करने के समय और मंशा पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा, "यह विधायी प्रतीकात्मकता को हथियार बनाने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है. सरकार नरसंहार के बारे में बात करने से इनकार करती है, फिर भी एक ऐसे निजी विधेयक को पेश करने की अनुमति देती है जिसमें न तो अपराध का नाम है और न ही अपराधी का. यह पीड़ितों का अपमान है, समाधान नहीं. हम अपनी मातृभूमि के प्रति राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की मांग करते हैं, न कि एक दिखावा."

उपाध्यक्ष डी.के. कौल ने कहा, "यह विधेयक विधायी लीपापोती है. यह ऐसी स्थिति में आम सहमति बनाने की कोशिश करता है जहाँ कोई आम सहमति नहीं है. यह वास्तविक अपराधियों, पलायन को प्रेरित करने वाली विचारधारा और अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में राज्य तंत्र की भूमिका को आसानी से नज़रअंदाज़ कर देता है. इस तरह की टालमटोल से कोई न्याय नहीं निकल सकता."