दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली विकास प्राधिकरण के दो पूर्व जूनियर इंजीनियरों को 1991 के एक पुराने भ्रष्टाचार मामले में बरी कर दिया है. ट्रायल कोर्ट ने दोनों को 2003 में दोषी ठहराया था, लेकिन अब हाई कोर्ट ने उनकी सज़ा और दोषसिद्धि रद्द कर दी है.
जस्टिस अमित महाजन ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन यानी प्रोसिक्यूशन यह साबित ही नहीं कर पाया कि इंजीनियरों ने रिश्वत मांगी थी. कोर्ट ने कहा कि केस में कई खामियां थीं और सबूत आरोपों को ठोस तरीके से साबित नहीं करते.
1991 के भ्रष्टाचार केस की पृष्ठभूमि
दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल याचिका के मुताबिक यह मामला साल 1991 का है जब एंटी करप्शन ब्रांच ने एक शिकायत पर दो इंजीनियरों हर स्वरूप वर्मा और अशोक कुमार गुप्ता को पकड़ने के लिए जाल बिछाया था.
आरोप था कि वे निर्माण से जुड़े फॉर्म पास कराने के लिए 2,500 रुपये रिश्वत मांग रहे थे. 2003 में ट्रायल कोर्ट ने दोनों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत डेढ़ साल की सज़ा सुनाई थी. दोनों इंजीनियरो ने निचली अदालत के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी और यह अपील 23 साल तक लंबित रही.
जांच प्रक्रिया और अधिकृत अधिकारियों पर सवाल
दिल्ली हाई कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान दोनों इंजीनियरो का कहना था कि जांच ऐसे अधिकारियों ने की जो कानूनी तौर पर अधिकृत नहीं थे. जांच इंस्पेक्टरों ने की थी और सही मंजूरी 1999 में मिली, जबकि जाल 1991 में बिछाया गया था. हाई कोर्ट ने माना कि जांच में कमी जरूर थी, लेकिन सिर्फ इसी वजह से पूरा ट्रायल गलत नहीं ठहराया जा सकता.
सबूतों में खामियां और विरोधाभासों की पड़ताल
दिल्ली हाई कोर्ट के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि क्या रिश्वत मांगी गई थी. हाई कोर्ट ने सबूतों की गहराई से जांच की और कहा कि शिकायतकर्ता कोई ऐसा दस्तावेज़ नहीं दिखा पाया कि जिस प्रॉपर्टी के लिए फॉर्म भरवाए जा रहे थे. वह उसकी या उसकी पत्नी की थी. न यह साबित हुआ कि वहां कोई निर्माण हो रहा था.
शिकायतकर्ता के बयानों में भी कई विरोधाभास मिले. गवाह ने भी यह नहीं बताया कि इंजीनियर ने कोई रिश्वत मांगी थी उसने सिर्फ इतना कहा कि इंजीनियर ने हाथ बढ़ाया था. दूसरे इंजीनियर अशोक गुप्ता तो मौके पर मौजूद ही नहीं थे. कोर्ट ने कहा कि रिश्वत मांगना भ्रष्टाचार के अपराध का सबसे जरूरी हिस्सा है केवल पैसे की बरामदगी से दोष साबित नहीं होता.
दिल्ली हाई कोर्ट ने मामले में की सख्त टिप्पणी
दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि कोर्ट का कर्तव्य सिर्फ आरोप लगने पर सज़ा देना नहीं है. अगर सबूत संदेह से परे बात साबित न करें तो आरोपी को फायदा दिया जाना चाहिए. सबूतों में कमी और विरोधाभासों को देखते हुए हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला रद्द कर दिया और दोनों इंजीनियरों को बरी कर दिया. दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के बाद 34 साल पुराने मामले का अब अंत हो गया है.