Cock Fighting: छत्तीसगढ़ के बस्तर में लगने वाले हाट बाजारों की अपनी अलग ही विशेषता है. हाट बाजारों में बस्तर की संस्कृति झलकती है और स्वादिष्ट व्यंजन भी मिलते हैं. खास बात है कि हाट बाजार में केवल बस्तर के आदिवासी ग्रामीणों का बनाया सभी सामान और व्यंजन होते हैं. सबसे मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है इन हाट बाजार में होने वाले मुर्गा लड़ाई. बस्तर में मुर्गा लड़ाई मनोरंजन का एक साधन है और पिछले कई वर्षों से आदिवासी मुर्गा लड़ाई में अपने मुर्गा पर दांव लगाते आ रहे हैं. अब धीरे-धीरे ग्रामीण अंचलों में लगने वाले हाट बाजारों में मुर्गा लड़ाई के दौरान शहरी क्षेत्र के युवा भी देखने और मुर्गे पर दांव लगाने पहुंचते हैं. बस्तर का पारंपरिक मनोरंजन का साधन होने की वजह से मुर्गा लड़ाई पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं होता.


हाट बाजारों की शान होती है मुर्गा लड़ाई 


छत्तीसगढ़ के बस्तरवासियों का मुर्गा लड़ाई खास शगल है. मुर्गा लड़ाई पर आदिवासी लाखों रुपए के दाव लगते हैं. खास बात है कि मुर्गा लड़ाई का कोई खास दिन निर्धारित नहीं है. साल के 12 लगने वाले हाट बाजारों में मुर्गा लड़ाई आकर्षण का केंद्र होती है. दांव पर लगाए जाने वाला मुर्गा सामान्य मुर्गा नहीं होता, बल्कि बड़े प्यार और जतन से पाल पोसकर बड़ा किया जाता है क्योंकि मुर्गा लड़ाई के शौकीनों की प्रतिष्ठा मुर्गे से जुड़ी होती है और मालिक परिवार से कहीं ज्यादा मुर्गे का ख्याल रखता है. तेजी और वार करने की क्षमता बढ़ाने के लिए सामान्य दाना पानी समेत ग्रामीण मुर्गे को जड़ी बूटियां खिलाते हैं. लड़ाई स्थल पर बकायदा फेंसिंग से घेरा बनाया जाता है जिसे कूकड़ा घाली कहते हैं. लड़ाई शुरू होने से पहले मुर्गे के पैरों में छुरी बांधी जाती है. छुरी से मुर्गा प्रतिद्वंदी मुर्गा पर वार करता है और मुर्गे की मौत होने के साथ ही खेल खत्म माना जाता है. खास बात है कि मुर्गा लड़ाई में 100 रुपये से लेकर 50 हजार और 2 से 3  लाख रुपये तक दांव लगाए जाते हैं.


मुर्गा मालिक को होता है बढ़िया मुनाफा


मुर्गा लड़ाई के शौकीन सोमनाथ नाग बताते हैं कि बस्तर के ग्रामीण अंचलों  में हर घर एक मुर्गा पालना आम बात है. मुर्गे को बड़े ही प्यार और जतन से पाला जाता है. बकायदा उसके खान पान की रूटीन होती है और समय-समय पर छोटे बच्चे की तरह खिला पिलाकर एकदम तंदुरुस्त रखा जाता है ताकि मुर्गा लड़ाई के दौरान स्फूर्ति और वार करने की क्षमता हमेशा बनी रहे. दूर-दराज के ग्रामीण विशेष रूप से ट्रेंड किए गए मुर्गे को लेकर मुर्गा लड़ाई में पहुंचते हैं. सोमनाथ ने बताया कि मुर्गा का मालिक मुर्गे को लड़ाने के लिए दांव में लगाता है और उसके बाद उस मुर्गे पर पूरे ग्रामीण और शहर से आने वाले लोग भी दांव लगाते हैं. मुर्गा की लड़ाई में विजेता मालिक के साथ ही खिलाने वाले को मुनाफा होता है. मुर्गा लड़ाई के दर्शक भी आपस में दांव लगाते हैं. सोमनाथ के मुताबिक लड़ाई में विजेता मुर्गा मालिक को दिन में 5 हजार तो कभी 10 से 15 हजार का मुनाफा देता है. बड़ी संख्या में मुर्गे को लेकर ग्रामीण हाट बाजारों में लगने वाले मुर्गा लड़ाई (कूकड़ा घाली) में पहुंचते हैं.


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ज्यादातर असील प्रजाति पर लगता है दांव


बस्तर के जानकार हेमंत कश्यप बताते हैं कि खेल में सबसे ज्यादा असील प्रजाति के मुर्गों को लड़ाया जाता है. उसका वैज्ञानिक नाम है- गेलस डॉमेस्टिकस. बस्तर के अलावा ये मुर्गा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य में पाया जाता है. मुर्गे की नजर साफ और टांगें लंबी होती हैं जो लड़ने में काफी सहायक होती हैं. उन्होंने बताया कि मुर्गा लड़ाई में 5 हजार रुपये से लेकर 50 हजार रुपये तक का दांव तो लड़ाने वाले ही लगाते हैं. इससे कई गुना ज्यादा रकम लड़ाई देखने वाले दर्शक लगाते हैं और आम दिनों में एक- एक दांव 1-2 लाख के होते हैं. त्यौहारी सीजन में बोली बढ़कर 1 से 4 लाख रुपए भी चली जाती है.


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