बिहार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. 2010 के बाद एनडीए ने इतनी बड़ी जीत बिहार में दर्ज की है. वहीं, राजद और कांग्रेस की ऐसी हालत भी बिहार में लंबे समय बाद हुई है. बिहार में जनता ने वोटों की ऐसी सुनामी चलाई कि महागठबंधन का सूपड़ा साफ हो गया.

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इस चुनाव में जहां मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच था. वहीं, तीसरी ताकत के रूप में बिहार में उभरने की जी-जान से कोशिश करने वाले 'पीके' यानी प्रशांत किशोर की जनसुराज का सूपड़ा ही साफ होता नजर आया. लेकिन, जनसुराज ने इस चुनाव में जिसे सबसे ज्यादा दर्द दिया, वह राजद है, जिसके वोट बैंक में पीके की पार्टी ने सेंध लगाई है.

प्रशांत किशोर जैसे नेता के लिए बिहार की जनता की तरफ से जो संदेश आया वह साफ और स्पष्ट था. पीके की पार्टी जनसुराज 0 पर निपटती नजर आई. पीके 3 साल तक बिहार में घूमते रहे और उनके 98 फीसदी उम्मीदवारों की जनता ने जमानत जब्त करा दी. ऐसे में अपने बड़बोलेपन में जो दावा प्रशांत किशोर कर गए थे, उसके मुताबिक तो ऐसे लगने लगा है कि सियासत में एंट्री करने से पहले ही वह एग्जिट करने के लिए तैयार खड़े हैं.

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जनता ने दिए ये संदेश?

कई मीडिया चैनलों पर प्रशांत किशोर ने चुनाव के पहले दावा किया था कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड 25 से ज्यादा सीटों पर नहीं जीत पाएगी. अगर ऐसा हो गया तो वह राजनीति छोड़ देंगे. वह तो यहां तक दावा कर आए थे कि या तो उनकी पार्टी 150 से ज्यादा सीटें जीतेगी या 10 से भी कम.

दरअसल, बिहार चुनाव में प्रशांत किशोर को इतना कॉन्फिडेंस विधानसभा उपचुनावों में पार्टी को 10 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल करने की वजह से आया था. उन्हें लगा था कि वह थोड़ी और मेहनत करेंगे तो बिहार चुनाव में अपनी छवि और स्पष्ट कर पाएंगे. लेकिन, उनकी पार्टी तो वोटकटवा बनकर भी सामने नहीं आ पाई.

इसके साथ ही जनता के बीच प्रशांत की आवाज नहीं पहुंचने का एक कारण यह भी रहा कि वह तेजस्वी को चैलेंज करके पीछे हट गए. ऐसे में बिहार की जनता को उनकी राजनीति व्यवसाय जैसी लगने लगी. अगर तेजस्वी को चैलेंज देते प्रशांत राघोपुर से चुनाव लड़ जाते और परिणाम कुछ भी होता तो उनकी पहचान कम से कम अरविंद केजरीवाल जैसी हो ही जाती, जो 2014 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़े थे.

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प्रशांत किशोर अपनी सभाओं में कहते रहे कि जाति और धर्म की राजनीति वह नहीं करेंगे. लेकिन, जब पार्टी उम्मीदवारों को उतारने की बारी आई तो उन्होंने भी अन्य पार्टियों की तरह जाति और धर्म के आधार पर ही उम्मीदवारों का चयन किया. बिहार में शराबबंदी का विरोध भी प्रशांत किशोर को ले डूबा. जिस तरह महिला मतदाता इस बार नीतीश के साथ खड़ी दिखीं, उसने प्रशांत किशोर की नींद उड़ा दी.

प्रशांत किशोर शायद यह समझ नहीं पाए थे कि यह बिहार है यहां जाति, समुदाय, स्थानीय समीकरण, सामाजिक गठबंधन का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है. ऐसे में जनसुराज की व्यवस्था-परिवर्तन वाली अपील बेशक यहां के लोगों को आकर्षक लगी थी. लेकिन, वह यह आकलन करने में चूक गए कि यहां जातिगत राजनीति की जमीन पर ही पॉलिटिक्स होती है.