दाल तड़का ही क्यों होती है, सब्जी तड़का क्यों नहीं? 99 पर्सेंट लोग नहीं जानते वजह
भारतीय रसोई की सबसे सुरीली आवाज क्या है? अगर कोई पूछे तो जवाब होगा, तड़का लगने की छन्न-छन्न अवाज. कड़ाही में गर्म तेल, उसमें डलता जीरा, फिर लहसुन, प्याज, और लाल मिर्च... और पूरे घर में फैल जाती है ऐसी खुशबू कि भूख अपने आप दोगुनी हो जाती है.
लेकिन सवाल यह है कि यह तड़का ज्यादातर दाल के लिए ही क्यों लगाया जाता है, सब्जियों के लिए क्यों नहीं? दरअसल, इसका जवाब हमारे खाने की प्रक्रिया और रसोई विज्ञान दोनों में छिपा है.
दाल का स्वाद बेसिक और उबला हुआ होता है, क्योंकि उसे पहले पानी में उबालकर पकाया जाता है. इसमें मसालों की तीव्रता नहीं होती है. अगर आप बिना तड़के की दाल खाएं, तो वह फीकी लगेगी. स्वाद में कमी और सुगंध में ठहराव होगा.
इसीलिए दाल का स्वाद बढ़ाने के लिए उसके ऊपर से तड़का डाला जाता है. यही तड़का दाल को सिर्फ एक उबली हुई चीज से उठाकर एक स्वादिष्ट व्यंजन बना देता है.
अब जरा सब्जियों की तरफ देखिए. जब भी आप कोई भी सब्जी बनाते हैं, चाहे वह आलू-भिंडी हो या लौकी-टमाटर, तो पकाने की शुरुआत ही तड़के से होती है. पहले तेल गर्म करना, उसमें जीरा डालना, फिर मसाले, प्याज, अदरक-लहसुन.
यानी तड़का तो शुरुआत में ही लग चुका होता है. इसी वजह से हम बाद में सब्जी पर तड़का लगाने की जरूरत महसूस ही नहीं करते हैं. तो फर्क सिर्फ टाइमिंग का है कि दाल में तड़का बाद में लगता है और सब्जी में तड़का पहले से ही लगाया जाता है.
बस, भाषा में भी यही फर्क दर्ज हो गया, इसलिए आज तक दाल तड़का ही सुनते हैं, सब्जी तड़का नहीं. लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती. पुराने जमाने में जब दाल बड़े बर्तनों में पकाई जाती थी, तो उसे गरम और ताजा स्वाद देने के लिए रसोइए ऊपर से तड़का डालते थे. इससे न सिर्फ खुशबू आती थी बल्कि दाल का pH लेवल और तेल का मिश्रण स्वाद को स्थिर करता था. यही तकनीक धीरे-धीरे परंपरा बन गई.