Land Rover Village: भारत का वो गांव जहां टैक्सी में चलती है Land Rover, कहां से आई यहां इतनी अमीरी?
मानेभंज्यांग की लैंड रोवर की कहानी ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू होती है. ब्रिटिश चाय बागान मालिकों और प्रशासकों ने पूर्वी हिमालय के ऊबड़-खाबड़, कीचड़ भरे और पथरीले पहाड़ी रास्तों पर सामान और लोगों को लाने ले जाने के लिए लैंड रोवर की गाड़ियां इंपोर्ट की थी. इन गाड़ियों को इसलिए चुना गया था क्योंकि वह काफी मजबूत होती हैं और मरम्मत करने में भी आसान थी.
मानेभंज्यांग भारत नेपाल सीमा के पास ऊंचाई पर बसा है. यह संदकफू और फालुत का गेटवे है. यह पश्चिम बंगाल की सबसे ऊंची चोटियां हैं. यहां की सड़क संकरी, कच्ची, खड़ी ढलान वाली हैं. यह सड़के अक्सर भूस्खलन और भारी बारिश की वजह से खराब हो जाती हैं. आज भी आधुनिक गाड़ियां इन पर मुश्किल से चल पाती हैं जबकि पुरानी लैंड रोवर गाड़ी इन्हें आसानी से पार कर लेती है.
जब 1947 में ब्रिटिश भारत छोड़कर गए तो इनमें से कई लैंड रोवर गाड़ियां यहीं पर छूट गई. उन्हें छोड़ने के बजाय स्थानीय गांव वालों ने उन गाड़ियों को खरीद लिया या फिर विरासत में पा लिया और धीरे-धीरे उन्हें ठीक करके पीढ़ियों तक इनका इस्तेमाल किया जाने लगा.
वक्त के साथ गांव वालों ने लैंड रोवर का इस्तेमाल टैक्सी के तौर पर करना शुरू कर दिया. यह ट्रैवलर्स और टूरिस्ट को आसपास के हिमालयी रास्तों पर ले जाने के लिए काम आती है. पर्यटन अब इस गांव की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुका है और लैंड रोवर टैक्सी सेवा कई परिवारों के लिए आय का मुख्य स्रोत बन चुकी है.
ऐसा माना जाता है कि इस गांव में दुनिया के सबसे पुराने चालू लैंड रोवर फ्लीट में से एक है. कुछ गाड़ियां जो अभी भी सर्विस में है वह 70 साल से भी ज्यादा पुरानी है.
आज इस गांव में आने वाले टूरिस्ट के लिए विंटेज लैंड रोवर में सफर करना अनुभव का एक हिस्सा है. इस वजह से टूरिस्ट के डिमांड बढ़ी है और यहां के अर्थव्यवस्था को भी काफी फायदा पहुंच रहा है.