वेंटिलेटर नहीं था तब कैसे होता था इलाज, जानें इसे किसने बनाया था?
आज वेंटिलेटर आधुनिक चिकित्सा की रीढ़ बन चुका है. चाहे कोरोना महामारी के समय हो या किसी गंभीर एक्सीडेंट के बाद की स्थिति, वेंटिलेटर वो मशीन है जो इंसान को मौत के मुहाने से खींच लाती है, लेकिन सवाल उठता है कि जब ये मशीन नहीं थी, तब लोग सांस रुकने या फेफड़ों के फेल होने पर कैसे जिंदा बचते थे?
20वीं सदी से पहले वेंटिलेटर जैसा कोई यंत्र नहीं था. डॉक्टर तब मैनुअल रेस्पिरेशन यानी हाथ से सांस देने की तकनीक अपनाते थे. इसमें डॉक्टर या नर्स मरीज के फेफड़ों में हवा भरने के लिए मुंह या एक विशेष ट्यूब का इस्तेमाल करते थे.
इसे माउथ-टू-माउथ रेसुसिटेशन या बेलोज टेक्निक कहा जाता था. बेलोज तकनीक में एक छोटा पंप या चमड़े का थैला होता था, जिसे दबाकर मरीज के फेफड़ों में हवा भेजी जाती थी. हालांकि यह तरीका सीमित समय के लिए ही काम करता था और कई बार ज्यादा दबाव से फेफड़े फटने का खतरा भी रहता था.
वेंटिलेटर की असली कहानी शुरू होती है 1928 में, जब अमेरिकी वैज्ञानिक फिलिप ड्रिंकर और लुई एगासीज शॉ ने पहला ‘आयरन लंग’ यानी लोहे का फेफड़ा बनाया था. यह एक बड़ा धातु का सिलेंडर था, जिसमें मरीज को गर्दन तक रखा जाता था.
मशीन बाहरी प्रेशर से मरीज के सीने को फैलाकर और सिकोड़कर सांस लेने में मदद करती थी. इसने पहली बार दुनिया को दिखाया कि मशीन भी इंसान की सांसें चला सकती है. इसके बाद 1950 के दशक में “पॉजिटिव प्रेशर वेंटिलेटर” आए, जो सीधे मरीज की नली में हवा भेजकर फेफड़ों को काम करने में मदद करते थे.
इन मशीनों ने ICU और ऑपरेशन थियेटरों की तस्वीर ही बदल दी. कोरोना महामारी के दौरान जब दुनिया भर में मरीजों की सांसें थमने लगीं, तब वेंटिलेटर ने लाखों जिंदगियां बचाईं. लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि वेंटिलेटर कोई जादुई मशीन नहीं है. अगर मरीज की स्थिति बहुत गंभीर हो, तो यह सिर्फ थोड़े समय के लिए शरीर को ऑक्सीजन पहुंचाने में मदद करता है.
कई बार मरीज की बॉडी मशीन पर निर्भर हो जाती है, जिससे डॉक्टरों को तय करना पड़ता है कि कब उसे हटाना सही रहेगा. आज के समय में वेंटिलेटर स्मार्ट तकनीक से लैस हैं, जिसमें सेंसर, डिजिटल डिस्प्ले और एआई सपोर्ट से लैस ये मशीनें मरीज की सांस के पैटर्न को पढ़कर खुद ही एडजस्ट हो जाती हैं.