नई दिल्लीः अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के साथ हर दिन बदतर होते हालात ने पाकिस्तानी भूमिका को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है. अफगान जमीन पर तालिबानी भेष में लड़ रहे पाकिस्तानी लड़ाकों की सामने आई शिनाख्त हो या फिर तालिबान लड़ाकों के लिए पाक में चल रहे अस्पतालों और सप्लाई लाइनों का मामला. 


इस्लामाबाद का यह प्लान अब सबके सामने है कि एफएटीएफ के दबाव में जहां वो अपना घर साफ दिखाना चाहता है. वहीं, आतंकी फैक्ट्री को अफगानिस्तान में शिफ्ट कर रहा है. ज़ाहिर इस नापाक प्लान ने भारत ही नहीं रूस, उज़्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, ईरान और चीन समेत कई देशों की चिंता बढ़ाई है.


आतंकी गुटों और उनके सरगनाओं को पहुंचाया अफगानिस्तान
हालांकि, बीते कुछ महीनों के दौरान नई दिल्ली को अफगानिस्तान के हालात पर मिल रही खुफिया रिपोर्ट लगातार इस तरफ इशारा कर रही थी कि पाकिस्तान तेज़ी से आतंकी कैम्प अफगानिस्तान पहुंचा रहा है. खासतौर पर उत्तरी वज़ीरिस्तान इलाके से आतंकी गुटों को मय परिवार अफगान इलाकों में पहुंचाने का सिलसिला तेज़ है. 


इन आकलनों और रिपोर्ट्स से वाकिफ सूत्रों के मुताबिक पाकिस्तान ने बड़ी संख्या में जहां आतंकी गुटों और उनके सरगनाओं को अफगानिस्तान पहुंचाया है. वहीं, अब स्पिन बोल्डक और चित्राल के अरुन्दू सेक्टर जैसे अफगान-पाकिस्तान बॉर्डर पॉइंट्स तालिबानी कब्ज़े में आने के बाद से सरहद पर आतंकी लश्करों की आवाजाही और आसान हो गई है.


 पाकिस्तान में चल रहा घायल तालिबानी लड़ाकों का इलाज
सूत्र बताते हैं कि डीएचए अस्पताल चमन, ज़ेलम अस्पताल क्वेटा और पेशावर के क़ई इलाकों में घायल तालिबानी लड़ाकों को जहां इलाज मुहैया कराया जा रहा है. वहीं, साथ ही उन्हें ज़रूरी रसद भी मुहैया कराई जा रही है. इस मामले को लेकर बीते दिनों अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ गनी का गुस्सा दुशांबे में पाक प्रधानमंत्री इमरान खान की मौजूदगी में ही फूट पड़ा. 


गनी ने दावा किया कि 10 हज़ार से अधिक विदेशी जेहादी लड़ाके बीते कुछ महीनों में अफगानिस्तान के भीतर दाखिल हुए. इतना ही नहीं ताशकंद में क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को लेकर हुई बैठक के दौरान भी उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान की तालिबान को लेकर उभरी चिंताएं और पाकिस्तान के खिलाफ नाराजगी साफ नजर आई थी.


कई आतंकी संगठनों का ठिकाना बनाया अफगानिस्तान में
सूत्रों के मुताबिक पाकिस्तान ने लश्कर-ए-तोयबा, जैश-ए-मोहम्मद, ईस्टर्न तुर्केमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट, इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उजबेकिस्तान समेत कई आतंकी संगठनों का बड़ा ठिकाना अफगानिस्तान को बनाया है. साथ ही इस काम में उसने हक्कानी नेटवर्क जैसे आइएसआइ के इशारे पर काम करने वाले तालिबानी संगठन का भी बखूबी इस्तेमाल किया.


जानकारों के अनुसार अफगानिस्तान में पैठ बढ़ाते इस आतंकी नेटवर्क से ईरान, उजबेकिस्तान, भारत, ताजिकिस्तान ही नहीं रूस और चीन की चिंताएं भी बढ़ी हैं. क्योंकि इन सभी मुल्कों की सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती हैं. इसके साथ ही इस बात का खतरा बरकरार है कि अगर बीते दिनों अफगान सरकार के नुमाइंदों ने सोशल मीडिया पर उन लड़ाकों के पाकिस्तानी पहचान पत्र जारी किए जो अफगानिस्तान के सुरक्षाबलों के साथ लड़ाई में मारे गए थे. वहीं, जियो टीवी पर दिए एक साक्षात्कार में पाक गृहमंत्री शेख रखीद ने स्वीकार किया कि तालिबान लड़ाकों के परिवार पाकिस्तान के बाराकऊ, लोईबीर, मीरवात समेत कई जगहों पर रहते हैं. इसके अलावा कई बार वो इलाज के लिए पाकिस्तान आते हैं,वहीं कई बार उनकी लाशें भी लाई जाती हैं.


अमेरिका और यूरोपीय संघ से मदद लेने की कोशिश में पाक
हालांकि दुनिया भर से उठ रहे सवालों के बीच पीएम इमरान खान समेत आला पाकिस्तानी मंत्री यही बताने में लगे हैं कि पाकिस्तान किसी भी सूरत में अफगानिस्तान के खिलाफ अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा. साथ ही उसकी कोशिश यह भी है कि अफगान शांति प्रक्रिया में भूमिका के बहाने अपनी छवि सुधारने के अलावा अमेरिका और यूरोपीय संघ से मदद व रियायत का एक बड़ा हिस्सा हासिल किया जा सके. 


 अफगान सुरक्षा हालात और पाकिस्तान की नीयत पर चीन भी चिंतित 
अफगानिस्तान में पाकिस्तानी करतूतों का बढ़ता असर और इस्टर्न तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) जैसे जिहादी संगठन की मौजूदगी को लेकर चीन की भी चिंताएं बढ़ी हैं. जानकारों के मुताबिक चीन इससे पहले तक अफगानिस्तान के मुद्दे को पाकिस्तान के चश्मे से देखता था. साथ ही उसने काफी हद तक मामलों को पाकिस्तान पर छोड़ भी रखा था. बदले में उसकी अपेक्षा यही थी कि उइगर प्रांत से सटे अफगान इलाके में ईटीआईएम के प्रभाव को न बढ़ने दिया जाए.


पाकिस्तान के खैबर पख्त्तूनख्वा इलाके में डासू जलविद्युत परियोजना पर काम कर रहे 10 चीनी इंजीनियरों की बस धमाके ने बीजिंग को हिला दिया है. आलम यह है कि चीन इस मामले की जांच के लिए जहां अपनी टीम पाकिस्तान भेज चुका है, वहीं चीनी विदेश मंत्री और आईएसआई प्रमुख भी बीजिंग पहुंचकर अपनी सफाई दे चुके हैं.   
 
अफगानिस्तान में अगले दो-तीन महीने अहम 
अफगानिस्तान के मौजूदा हालात के मद्देनजर भारतीय खेमा फिलहाल अगले दो-तीन महीनों को खासा अहम मान रहा है. जिसमें यह देखा जाना है कि आखिर अफगानी बिसात पर तालिबान 31 अगस्त, अमेरिकी सेनाओं की मुकम्मल वापसी की तारीख  के बाद क्या रणनीति अपनाता है? अफगान सुरक्षाबल काबुल के किले और आबादी वाले बड़े शहरों को बचा पाते हैं या नहीं? साथ ही यह तय होना है कि क्या तालिबान ताकत के जोर पर काबुल को कब्जाते हैं या फिर कोई शांति समझौता उभर कर सामने आता है? इस तरह के कई सवाल फिलहाल भारतीय रणनीतिकारों के सामने हैं. 


जरूरत पड़ी तो भारत बढ़ा सकता है सैन्य सहायता का दायरा
ऐसे में भारतीय नीति नियंताओं ने 2011 के भारत-अफगानिस्तान रणनीतिक समझौते में सैन्य सहयोग के प्रावधानों का सहारा ले अफगान सेनाओं की मदद की योजनाओं पर काम शुरू कर दिया है. सूत्रों के मुताबिक यह समझौता व्यापक तौर पर यह प्रावधान करता है कि भारत -अफगान सेनाओं के क्षमता विस्तार में मदद दे सकता है. इसके तहत जरूरत पड़ने पर सैन्य सहायता का दायरा भी बढ़ाया जा सकता है. ध्यान रहे कि भारत अभी तक अफगानिस्तान के लिए अपनी सैन्य सहायता को मुख्यतः सैन्य प्रशिक्षण और कुछ साजो-सामान की आपूर्ति तक ही सीमित रखता रहा है. हालांकि भारत की सैन्य मदद कैसी और कितनी हो इसका आकलन जमीनी हालात को तौलने के बाद ही लिया जाएगा.


अपने-अपने दांव भांज रहे तालिबान और अफगान सेनाएं
जानकार मानते हैं कि तालिबान की रणनीति अधिक से अधिक इलाके को कब्जाने की है, ताकि वो अधिक ताकत के साथ बातचीत की मेज पर बैठ सके. साथ ही उन्होंने अपने पारंपरिक गढ़ कंधार, कुनार, हेलमंद जैसे इलाकों के साथ बादकशां, बाल्ख कलदार, शेरहान जैसे उत्तरी इलाकों को भी कब्जाया है. जाहिर है इसके पीछे तालिबानी कोशिश अपनी शर्तों पर समाधान का रास्ता निकलवाने पर मजबूर करने की है. हालांकि मौजूदा आकलन के मुताबिक अफगानिस्तान के 426 जिलों में से 212 जिलों पर तालिबान का कब्जा है जबकि 111 पर सरकारी सेनाओं का नियंत्रण. वहीं अन्य जिलों को लेकर लड़ाई जारी है.


बताया जाता है कि अफगान सेनाओं ने भी अपनी रणनीति को बदलते हुए काबुल और मजार-ए-शरीफ समेत अधिक आबादी वाले शहरों पर नियंत्रण बनाए रखने की योजना बनाई है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की तरफ से अफगान सुरक्षा बलों को समर्थन और मदद जारी रखने को लेकर आया आश्वासन भी संकेत देता है कि अफगानी सेनाएं तालिबान के खिलाफ अपना मोर्चा आने वाले दिनों में मजबूत करेंगी. साथ ही तालिबान के खिलाफ पुराने नॉदर्न अलायंस के अब्दुल रशीद दोस्तम और उस्ताद मोहम्मद अट्टा जैसे पुराने योद्धाओं की भी ताकत बढ़ाई जा रही है.


 तालिबान के लिए भी पूरे अफगानिस्तान पर नियंत्रण मुश्किल
ऐसे में यह माना जा रहा है कि पूरी ताकत लगाने के बावजूद तालिबान के लिए पूरे अफगानिस्तान पर बंदूक के जोर पर कब्जा करना मुमकिन नहीं होगा. साथ ही यदि मारकाट के जरिए तालिबान काबुल का किला फतह कर भी लेते हैं तो उसके उनके सामने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के साथ तालमेल बनाने और अपनी वैधता जताने का संकट होगा. इतना ही नहीं तालिबान के भीतर मौजूद धड़ों के बीच भी आपसी तालमेल एक चुनौती है. लिहाजा सत्ता की बंदरबांट के मुद्दे पर मुल्ला बिरादर, मुल्ला याकूब और मुल्ला स्तैनकज़ई के धड़ों में क्या फार्मूला बनता है यह देखना होगा.


तालिबान ने यदि काबुल पर देर-सवेर कब्जा कर भी लिया तो इस बात की आशंका ज्यादा है कि देश के कई इलाके पर तब भी छोटे-छोटे अफगान लड़ाकों और गुटों का कब्जा हो. इसके साथ ही इस बात का भी डर बरकरार है कि आइएसआइएस जैसे आतंकी संगठन इन इलाकों में अपनी पैठ जमा लें.


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