नई दिल्ली: भारत में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले मैसेजिंग एप व्हाट्सऐप की नई प्राइवेसी पॉलिसी को लेकर लोगों में उत्सुकता भी है और चिंता भी. बताया जा रहा है कि व्हाट्सएप अपने यूजर्स का डाटा फेसबुक के साथ भी शेयर करेगा. हालांकि व्हाट्सऐप सफाई दे चुका है कि वह लोगों की आपसी बातचीत को न तो खुद देखेगा, न शेयर करेगा. लेकिन इस बात को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि आखिरकार लोगों की निजी जानकारी किसी भी रूप में कैसे इस्तेमाल की जा सकती है? एबीपी न्यूज़ ने पूरे मसले के कानूनी पहलुओं की पड़ताल की है.


निजता एक मौलिक अधिकार
सबसे पहले बात निजता की. 2018 में जस्टिस के एस पुत्तास्वामी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट निजता को मौलिक अधिकार घोषित कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में माना था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत लोगों को सम्मान के साथ जीने का जो मौलिक अधिकार हासिल है, निजता उसी का एक हिस्सा है. ऐसे में इस बात को लेकर कोई शक नहीं कि लोगों के मौलिक अधिकार की रक्षा करना सरकार का दायित्व है. लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि निजता के दायरे में क्या आएगा और क्या नहीं?


सरकार को नियम बनाने चाहिए
इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी और सिविल मामलों के जानकार वरिष्ठ वकील चंदर लाल के मुताबिक, “आज के समय में इंटरनेट का इस्तेमाल या स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने वाला कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि उसे पूरी तरह से प्राइवेसी हासिल है या हासिल होनी चाहिए. तमाम ऐप लोगों की जानकारियों का संग्रह करते हैं. वह ऐसा करने से पहले बकायदा अनुमति भी मांगते हैं. फिर भी यह सही है कि लोगों की बहुत सी जानकारियां ऐसी होती हैं जो पूरी तरह निजता के दायरे में आती हैं. उनकी रक्षा के लिए सरकार को नियम बनाने चाहिए.“


सरकार के पास है शक्ति
झारखंड हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस अजीत कुमार सिन्हा के मुताबिक, “इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2000 की धारा 79 (2)(C) और 87 (2)(zg) के तहत केंद्र सरकार को यह शक्ति दी गई है कि वह इंटरमीडियरी यानी जिस प्लेटफार्म के जरिए लोग जानकारियों का लेनदेन कर रहे हैं, उसे नियंत्रित रखने के लिए नियम बनाए. इस कानून को बने 20 साल हो गए, लेकिन सरकार ने अब तक नियम नहीं बनाए हैं. यही वजह है कि बार-बार इंटरनेट के जरिए लोगों के की निजता के हनन पर चर्चा होती रहती है. लेकिन इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं मिल पाती कि इंटरमीडियरी कौन सी जानकारी दूसरों के साथ साझा कर सकते हैं और कौन सी नहीं.“


फिलहाल क्या कानूनी कार्रवाई हो सकती है?
अब यह सवाल है कि अगर सरकार ने अब तक गाइडलाइन नहीं बनाई है, तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि कोई ऐप कुछ भी कर सकता है? उसके ऊपर कोई नियंत्रण नहीं है? क्या मौजूदा स्थिति में सरकार या अदालत किसी ऐप को ऐसा करने से नहीं रोक सकते हैं? जस्टिस सिन्हा का कहना है, “निजता एक मौलिक अधिकार है. इसलिए, इसकी रक्षा के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जा सकता है. अगर कोई मैसेंजर ऐप यह दावा करता है कि उसके जरिए भेजे जाने वाले मैसेज एंड टू एंड इंक्रिप्टेड होते हैं. उन्हें भेजने वाले और जिसे भेजा गया है के अलावा कोई और नहीं पढ़ सकता, तो यह दावा ऐप के यूजर और ऐप को चलाने वाली कंपनी के बीच एक सिविल कॉन्ट्रैक्ट जैसा माना जाएगा. इसके हनन को भी अदालत में चुनौती देते हुए मुआवजे की मांग की जा सकती है. ऐप चलाने वाले वाली कंपनी को ऐसा करने से रोकने का आदेश भी जारी करवाया जा सकता है.“


यूजर्स की स्थिति कमजोर
इन कानूनी उपायों के बावजूद जानकारों का यह मानना है कि सोशल मीडिया इंटरमीडियरी को लेकर सरकार की तरफ से अब तक कोई गाइडलाइंस न बनाए जाने के चलते यूजर कमजोर स्थिति में पड़ जाते हैं. अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इंटरमीडियरी का दायरा क्या है. ऐसे में हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट सरकार को यह आदेश दे सकते हैं कि वह इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2000 के तहत हासिल अपनी शक्ति का इस्तेमाल करे और सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज को लेकर स्पष्ट गाइडलाइन बनाए. इस तरह की गाइडलाइंस बन जाने के बाद न सिर्फ सरकार के लिए इन कंपनियों पर कार्रवाई करना आसान हो जाएगा, बल्कि इनका इस्तेमाल करने वाले आम नागरिक भी गाइडलाइंस का उल्लंघन होने की सूरत में कानूनी कार्रवाई कर सकेंगे.


नई प्राइवेसी पॉलिसी पर रोक मुश्किल
इस बात की संभावना बहुत कम है कि वह व्हाट्सऐप से ऐसा कहे कि वह अपनी नई प्राइवेसी पॉलिसी को लागू न करे. इस बात की उम्मीद ज्यादा है कि कोर्ट व्हाट्सएप से उसकी नई पॉलिसी पर स्पष्टीकरण मांगेगा और उससे यह कहेगा कि फिलहाल मौजूद कानूनों का पालन करते हुए ही वह कोई भी पॉलिसी लागू कर सकता है. इस समय चूंकि कोई स्पष्ट गाइडलाइन नहीं है. ऐसे में, कोर्ट सरकार से इसे जल्द से जल्द बनाने के लिए कह सकता है.


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