Ram Mandir Pran Pratishtha: अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के लिए बीजेपी ने क्या किया, यह बात किसी से छिपा नहीं है, लेकिन क्या अयोध्या में राम मंदिर को बनाने में कांग्रेस की भी कोई भूमिका है? क्या 23 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद-जन्म स्थान पर जो ताला लगा था, उसे खुलवाने में कांग्रेस की कोई भूमिका है. क्या वह ताला प्रधानमंत्री राजीव गांधी की वजह से खुला था या फिर ताला खुलने के पीछे अदालत का कोई आदेश है, जिसे मानना सरकार की मजबूरी थी? 


बाबरी मस्जिद के बाहर बने राम चबूतरे पर राम लला की जो मूर्ति थी, वह 22 दिसंबर 1949 की देर रात मस्जिद की बीच वाली गुंबद के नीचे स्थापित कर दी गई थी और तब केंद्र में पंडित नेहरू प्रधानमंत्री थे, जबकि राज्य में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पंडित गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे. यह भी तय है कि मस्जिद में मूर्ति तभी रखी गई थी, जब केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर कांग्रेस की सरकार थी. 


1949 को मस्जिद पर ताला लगा
जब बाबरी मस्जिद की गुंबद के नीचे राम लला की मूर्ति रखी गई तो 23 दिसंबर 1949 को मस्जिद पर ताला लगा दिया गया. खुद प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने कोशिश की कि मू्र्ति को मस्जिद से बाहर निकालकर फिर से राम चबूतरे पर रख दिया जाए, लेकिन तब फैजाबाद के डीएम रहे केके नायर ने सुरक्षा-व्यवस्था का हवाला देकर आदेश मानने से इन्कार कर दिया और राज्य सरकार को मजबूरी में मस्जिद पर ताला लगाना पड़ा.


बाबरी मस्जिद का इस्तेमाल बंद
इसके बाद मामला अदालत पहुंचा और 29 दिसंबर 1949 को फैजाबाद कोर्ट के अडिशनल मैजिस्ट्रेट ने CRPC, 1898 के सेक्शन 145 के तहत आदेश जारी कर पूरी जगह को म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन की रिसीवरशिप में रखवा दिया. यानी अब उस परिसर की रखवाली राज्य सरकार को करनी थी और परिसर पर सरकारी ताला जड़ा जा चुका था, जिसकी वजह से बाबरी मस्जिद का बतौर मस्जिद इस्तेमाल बंद हो गया.


कर्नाटक के उडूपी में धर्मसंसद
इसके बाद फैजाबाद सिविल जज की अदालत में याचिकाओं की बाढ़ आ गई. हिंदू पक्ष ने कहा कि उन्हें पूजा करने दी जाए और ताला खोला जाए. मु्स्लिम पक्ष ने कहा कि ताला खोला जाए, ताकि वे मस्जिद का इस्तेमाल कर सकें. मामला अदालत की चौखटों से गुजरता हुआ 1985 तक पहुंच गया. तब 31 अक्टूबर से 1 नवंबर 1985 के बीच कर्नाटक के उडूपी में एक धर्मसंसद हुई. इसमें तय किया गया कि अगर ताला नहीं खुलता है तो संत 9 मार्च, 1986 से अनशन शुरू कर देंगे. इतना ही नहीं महंत परमहंस रामचंद्र दास ने तो आत्मदाह तक की धमकी दे डाली.


हिंदुओं के निशाने पर थे राजीव गांधी
उस वक्त राजीव गांधी शाह बानो प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने और संसद में कानून बनाकर उस फैसले को पलटने को लेकर हिंदुओं के निशाने पर थे. अरुण नेहरू और माखनलाल फोतेदार समेत कांग्रेस के कई नेताओं ने उन्हें सलाह दी कि वह राम मंदिर का ताला खुलवा दें तो शाहबानो प्रकरण की वजह से जो हिंदू कांग्रेस से नाराज हैं, वो खुश हो जाएंगे. 


ताला खोलने की याचिका  
इस पर राजीव गांधी तैयार हो गए. इस बीच फैजाबाद के ही एक वकील उमेश चंद्र ने 28 जनवरी 1986 को निचली अदालत में ताला खोलने की याचिका दाखिल कर दी, लेकिन निचली अदालत के जज ने कहा कि केस से जुड़े कागजात हाई कोर्ट में हैं, जिन्हें देखे बिना फैसला नहीं हो सकता. ये कहकर अदालत ने उस याचिका को तुरंत ही खारिज कर दिया. उमेश चंद्र ने इस फैसले के खिलाफ 31 जनवरी 1986 को फैजाबाद जिला जज केएम पांडेय की अदालत में एक याचिका दाखिल कर दी.


तब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वीर बहादुर सिंह को संदेशा भिजवाया. उस वक्त वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. इस बीच उमेश चंद्र की याचिका पर जिला जज केएम पांडेय ने स्थानीय प्रशासन से कानून-व्यवस्था को लेकर राय ली. 


तब फैजाबाद के तत्कालीन डीएम इंदु कुमार पांडेय और एसपी कर्मवीर सिंह ने कोर्ट में हलफनामा दिया कि ताला खुलने से किसी तरह की कानून-व्यवस्था की दिक्कत नहीं होगी और फिर अगले ही दिन 1 फरवरी, 1986 की शाम चार बजकर 40 मिनट पर जज केएम पांडेय ने अपना फैसला सुनाया.


ताला खुलने से पहले लगी भीड़
उन्होंने आदेश दिया कि एक घंटे के अंदर ताला खोल दिया जाए. इससे पहले कि पुलिस प्रशासन अदालत के आदेश की तामील करता, जिस सरकारी अधिकारी के पास उस ताले की चाबी थी, उसका इंतजार होते-होते हजारों की संख्या में लोग विवादित स्थल पर पहुंच गए और किसी ने ताला खोल दिया. 


37 साल बाद खुला नाता
अब आदेश चूंकि अदालत का था, तो फिर प्रशासन ने ये भी पता लगाने की कोशिश नहीं की कि ताला किसने खोला, लेकिन करीब 37 साल से बंद पड़ा ताला खुल गया था. हालांकि, ताले के खुलने की एक और कहानी है, जो राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान पीएमओ के संयुक्त सचिव और दून स्कूल में राजीव गांधी के जूनियर रहे आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह बताते हैं. वह कहते हैं कि 1 फरवरी 1986 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का जब ताला खुला, तो राजीव गांधी को उसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी. 


ताला खोलने का फैसला राजीव गांधी की कैबिनेट में गृह राज्य मंत्री रहे अरुण नेहरू और मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह लिया था, जिसकी वजह से राजीव गांधी और अरुण नेहरू के बीच इतनी तल्खी बढ़ी कि अरुण नेहरू से मंत्रालय भी छिन गया.


1 फरवरी, 1986 को ताला खुलने के दौरान जो हुआ था, उसे देखकर ये कहानी गले नहीं उतरती है. क्योंकि उस समय सिर्फ दूरदर्शन ही एक न्यूज चैनल हुआ करता था और फैजाबाद में दूरदर्शन का कोई दफ्तर नहीं था.  हालांकि, ताला खुलने के एक घंटे के अंदर ही दूरदर्शन ने उस घटना का लाइव प्रसारण किया, जो अपने आप में साबित करने के लिए पर्याप्त है कि बिना सरकार की सहमति के दूरदर्शन ऐसी कवरेज कर ही नहीं सकता था. 


रही बात ताला खोलने में कांग्रेस और खास तौर से राजीव गांधी की सहमति की, तो अगर राजीव गांधी की सहमति नहीं होती तो जिला जज के इस फैसले के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील भी की जाती, लेकिन जिला जज के फैसले को किसी ने भी चुनौती नहीं दी और जो ताला खुला तो फिर खुला ही रह गया. 


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