सुप्रीम कोर्ट ने 14 साल की रेप पीड़िता को गर्भपात की मंजूरी का आदेश वापस ले लिया है. पीड़िता  के माता-पिता का मन बदलने के बाद कोर्ट ने फैसला वापस लिया है. सोमवार (29 अप्रैल) को पीड़ित परिवार ने मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ (CJI DY Chandrachud) और मामले की सुनवाई कर रहे न्यायाधीशों से बात की और कहा कि उन्होंने प्रेग्नेंसी पीरियड का इंतजार करने का फैसला किया है. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने पीड़िता के माता-पिता से बात करने के बाद आदेश पलटते हुए कहा कि बच्चे का हित सर्वोपरी है. 


मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने अपराह्न दो बजे अदालत कक्ष में मामले की सुनवाई की. पीठ की सहायता कर रहीं अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी और नाबालिग लड़की के माता-पिता के वकील से बातचीत की.


मामले से जुड़े वकीलों ने कहा कि लड़की के माता-पिता ने वीडियो-कॉन्फ्रेंस के माध्यम से जजों के साथ बातचीत की. लड़की के माता-पिता ने कहा कि उन्होंने गर्भावस्था की पूरी अवधि तक इंतजार करने का फैसला किया है. मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने अभिभावकों की दलीलें स्वीकार कर लीं और 22 अप्रैल का आदेश वापस ले लिया.


सुप्रीम कोर्ट ने 22 अप्रैल को अपने आदेश में लड़की को 30 सप्ताह का गर्भ को गिराने की अनुमति दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिग लड़की का कल्याण बेहद महत्वपूर्ण बताते हुए 22 अप्रैल को संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए लड़की को अपना गर्भ गिराने की अनुमति दी थी. अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को किसी भी मामले में पूर्ण न्याय के लिए आवश्यक आदेश पारित करने का अधिकार है.


मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट शादीशुदा महिलाओं को 24 हफ्ते में गर्भपात की इजाजत देता है. रेप पीड़िता, दिव्यांग, नाबालिग के लिए भी कानून 24 हफ्ते में अबोर्शन की अनुमति देता है.


पहले मेडिकल बोर्ड ने कहा था कि संभव है कि पीड़िता के अबोर्शन के दौरान बच्चा जिंदा हो और ऐसे में उसको नियोनेटल केयर यूनिट की जरूरत होगी. बच्चे और पीड़िता दोनों के जीवन के लिए खतरा हो सकता है. यह मामला इसी साल 23 फरवरी का है, जब पीड़िता अचानक गायब हो गई थी और तीन महीने बाद राजस्थान में गर्भावस्था की हालत में मिली थी. तब पता चला कि नाबालिग के साथ यौन उत्पीड़न हुआ था.


इसके बाद नाबालिग पीड़िता ने अबोर्शन की इजाजत के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन कोर्ट ने यह कहकर याचिका खारिज कर दी कि जबरन डिलीवरी से बच्चे और नाबालिग दोनों की जान को खतरा हो सकता है. ये भी हो सकता है कि बच्चा अल्पविकसित पैदा हो.


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