नब्बे सेकंड की टीवी पत्रकारिता लेखकः विजय विद्रोही प्रकाशकः नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया मूल्यः 185 रुपये


एक ऐसे समय में जब टेलीविजन पत्रकारिता फटाफट के संक्रमण काल से गुजर रही है. वरिष्ठ पत्रकार विजय विद्रोही की किताब 'नब्बे सेकंड की टीवी पत्रकारिता' ज़रा ठहरकर और इत्मिनान के साथ पढ़ने की मांग करती है. खास बात ये है कि ये किताब ऐसे वक्त प्रकाशित हुई है जब ब्रॉडकास्ट मीडिया का बढ़ता दायरा टीवी के साथ-साथ न्यू मीडिया की तरक्की में सबसे बड़ी भूमिका निभा रहा है. इसी दौर में पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी किस्मत आज़माने वाले छात्रों या रिपोर्टिंग की दुनिया में बेहतर और अच्छा काम करने की चाहत रखने वाले नए-नए रिपोर्टरों के लिए ये किताब बेहद मुफीद है.


अगर नए-नए पत्रकार अच्छी रिपोर्टिंग और अपनी स्टोरी में कुछ अच्छा और नया करने की चाह रखते हैं तो उन्हें ये किताब जरूर पढ़नी चाहिए. इस किताब में अच्छी रिपोर्टिंग के लिए जरूरी योग्यता और व्यावहारिक समझ के सारे गुर बताए और सिखाए गए हैं. उन छोटी-छोटी बातों का जिक्र है जिसका सीधा अभुनव फील्ड में लेखक ने खुद किया और अपने उस तजुर्बे को बड़ी ईमानदारी के साथ इस किताब में लौटाया है. कहानी कहने के तौर-तरीके, उसकी तकनीक और अंदाज पर विस्तार से चर्चा की गई. क्या कंटेंट और विजुअल्स रखें और कितना रखें उससे जुड़े मुद्दों की समझ को बड़ी खूबी के साथ बताया गया है. हालांकि, इस किताब का ज्यादा ज़ोर नए-नए पत्रकारों को कुछ अच्छा और नया बताने में है. इसके साथ ही किताब पत्रकारिता में दिलचस्पी रखने वाले छात्रों, डेस्क पर काम करने वाले पेशेवर मीडियाकर्मियों व संपादकों और कॉलेज-यूनिवर्सिटी में पठन-पाठन का काम कर रहे अध्यापकों-छात्रों लिए भी बेहद मौजूं है.


इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिंदी में मीडिया के विषय पर किताबों का अकाल है और जो किताबें हैं भी तो उनमें व्यवहारिक पत्रकारिता की जानकारी बिल्कुल नहीं है. ऐसी किताबें तो बिल्कुल नहीं हैं जिनमें फील्ड पत्रकारिता की गहराई बताई गई हो.


किताब का अंश


इस किताब का नाम अजूबा और निराला है. आपके जेहन में भी ये सवाल उठ रहा होगा कि आखिर 'नब्बे सेकंड की टीवी पत्रकारिता' भला किसी किताब का नाम कैसे हो सकता है? दरअसल, इस किताब में ये बताने की कोशिश की गई है टीवी पत्रकारिता में स्टोरी के लिए सिर्फ 90 सेकेंड ही होते हैं और इतने ही समय में किसी भी पत्रकार को अपनी कहानी समझानी होती है. ये बात भी साफ-साफ बताई गई है कि अगर कोई फील्ड रिपोर्टर 90 सेकेंड में अपनी स्टोरी दर्शक को नहीं समझा सकता तो ये मीडियम उनके लिए नहीं है.


इस किताब में लेखक ने अपने तीन दशक के लंबे पत्रकारिता जीवन के उन अनुभव को अपनी जुबानी बांटा है, जिसे उन्होंने फील्ड में खुद महसूस किया. इस किताब में कुल 11 चैप्टर हैं. लेखक ने पहले चैप्टर में अपने यादगार टीवी कार्यक्रम 'मेघदूत' का जिक्र किया है. इस कहानी के जरिए उन्होंने ये बताने की कोशिश की है कि किसी पत्रकार का पढ़ाकू होना उसके लिए हमेशा मदगागर होता है. साथ ही जब भी फील्ड में उतरा जाए तो विषय की पूरी जानकारी के बाद उतरा जाए.


इसी तरह लेखक ने अपने एक अन्य चैप्टर में विदेशी धरती पर स्टोरी की तलाश में जा रहे रिपोर्टरों के लिए छोटी से बड़ी हर बारीक बातें बताई हैं. कैसे कैमरामैन का चुनाव करें और जो मिले, जो दिखे उसे शूट करते चले जाएं, कभी बाद में शूट करने की बात नहीं सोचें. इस तरह लेखक ने रिपोर्टिंग के सब्र और संयम की बातें अपनी कहानी के जरिए की हैं और कैसे बड़ी स्टोरी का फॉलो-अप किया जाता है, उसे  लेकर अपने तजुर्बे को बताया है.


लेखक ने अपने उस तजुर्बे को भी बताया है कि कैसे आईआईटी की परीक्षा पास करके मर्चेंट नेवी बनने चले, लेकिन कुछ बड़ा करने के सपने ने उन्हें उस दुनिया को अलविदा खहने पर मजबूर किया.. इसके बाद फिर उन पत्रकारों के लिए प्ररेणा बने जो ये सोचते हैं कि कहां इस फील्ड में आएं या आकर फंस गए.


नब्बे सेकेंड की टीवी पत्रकारिता: दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में हॉल नंबर 12 से नेशनल बुक ट्रस्ट के स्टॉल से यह किताब विशेष छूट के साथ खरीद सकते हैं.