राज की बातः कांग्रेस इस समय बवंडर के बड़े दौर से गुजर रही है. एक तरफ पंजाब कांग्रेस के आपसी कलह ने आलाकमान के पसीने छुड़ा दिए तो वहीं दूसरी तरफ राजस्थान की रार अभी भी आर-पार के मूड में बनी हुई है. राहुल अनिर्णय की स्थिति में हैं तो प्रियंका अपने वचन का मान न रख पाने की शर्मिंदगी में सच से भाग रही हैं.


राजस्थान की सियासत के बहाने कांग्रेस आलाकमान के असमंजस और लोकतंत्र के नाम पर फ़ैसले थोपे जाने की संस्कृति का राज भी खुलकर सामने आ रहा है. ख़ास बात है कि बहन-भाई के बीच भी फ़ैसलों में पारदर्शिता नहीं है ये भी कैसे सामने आ रहा है, इसे समझने के लिए मौजूदा हालात पर नज़र फिराइये.


सवाल इसलिए क्योंकि राज की बात ये है कि पार्टी से लेकर परिवार चलती तो राहुल की है लेकिन कोई विकट स्थिति आ जाए तो डैमेज कंट्रोल की भूमिका में प्रियंका गाधी ही दिखती हैं. पिछले साल जब राजस्थान कांग्रेस में बवाल हुआ तब प्रियंका ने ही साचिन पायलट को मनाया था, पार्टी को टूटने से बचाया था और उन्हें आश्वासन दिया था कि पार्टी पायलट खेमे का ख्याल रखेगी. धीरे धीरे 1 साल बीत गए, सचिन की सुनी नहीं गई.....वो एक बार फिर से मुखर हैं और अब वादा पूरा नहीं हुआ तो प्रियंका भी उनका सामने करने की स्थिति में नहीं हो सो वो शिमला रवाना हो गईं.


विरोधाभास देखिये जो राहुल युवाओं को आगे लाने के पौरोकार हैं, उनके राज में युवा ही सबसे लाचार नज़र आ रहे हैं. सचिन पायलट अध्यक्ष पद या उपमुख्यमंत्री पद सब खो ए ही, लेकिन गहलोत ने उनके समर्थक माने जाने वाले विधायकों को ही पूरी तरह से हाशिये में डाल दिया. राहुल-प्रियंका के वचन का मान भी नहीं रखा जा रहा राजस्थान में. ऐसे में प्रियंका से ही उम्मीद लेकर आए पायलट का सामना करने से बचने के लिए प्रियंका शिमला की वादियों में आराम फ़रमा रहीं हैं.


अब राहुल से ये हालात संभल पाएंगे या वे वाक़ई संभालना चाहते भी हैं क्या ये सवाल बड़ा हो गया है. और सवाल ये भी है कि जब पार्टी की हर नीति पर राहुल की ही चलती है तो फिर नाराजगियों को साधने के लिए वो सामने क्यों नहीं आते. और अगर संगठन की कलहों को वो संभालने से बचते हैं तो क्या अच्छे अध्यक्ष साबित हो पाएंगे.  ये सवाल इसलिए भी है क्योंकि भाजपा के आंतरिक लोकतंत्र को राहुल जो जो आरोप लगाते हैं. असल में उनकी ही कार्य़शैली का वो सब हिस्सा है.


राज की बात सियासी चरित्र में छिपी है. सियासत में बहुत कुछ ऐसा होता है जो सिद्धांतो में तो बहुत अच्छा लगता है पर धरातल से उसकी धुरी नदारद होती है. अमूमन ऐसा देखने को मिल ही जाता है कि जिस मामले पर कोई दल किसी दूसरे पर निशाना साध रहा होता है. उस मामले में निशाना साधने वाले के हालात भी निल बटे सन्नाटा ही होते हैं. एक ऐसी ही राज की बात हम आपको आज बताने जा रहे हैं. ये राज की बात कांग्रेस से जुड़ी हुई है, ये राज की बात राहुल गांधी से जुड़ी हुई है, ये राज की बात राहुल और उनकी कांग्रेस के उन आरोपो से जुडी हुई है जिसमें भाजपा के वरिष्ठ नेताओं पर पार्टी में तानाशाही के आरोप लगाए जाते हैं.


राज की बात ये है कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भले ही राहुल गांधी नहीं हैं लेकिन होता वही है तो राहुल चाहते हैं. सिद्धान्तों की सतह पर अध्यक्ष तो सोनिया गांधी हैं लेकिन जमीन पर जमाना राहुल का ही चल रहा है. पार्टी में कौन आएगा, कौन जाएगा, कौन बुलाया जाएगा, कौन जाने पर मजबूर कर दिया जाएगा. सारे फैसले राहुल के ही होते हैं. और यही वो नीति है जिसपर कांग्रेसी कुनबा और राहुल गांधी गाहे-बगाहे बीजेपी पर मुखर होते रहते हैं और ये बताने की कोशिश होती है कि बीजेपी में तो आंतरिक लोकतंत्र ही नहीं है तो भला देश में उनसे क्या उम्मीद की जाए.


राजनीति में आरोप लगाना आसान होता है लेकिन उन सिद्धान्तों की कसौटी पर खुद को उतारकर साबित करना उतना ही कठिन. माना जा रहा है कि आगामी सितंबर में सीडब्ल्यूसी की बैठक में नए कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी को चुना जा सकता है. लेकिन इस चुनाव की भूमिका में भी एक राज की बात छिपी हुई है. राज की बात ये है कि अध्यक्ष बनने से पहले ही राहुल गांधी अपनी टीम और रणनीति को पार्टी में स्थापित कर देना चाहते हैं. इसके पीछे की वजह ये है कि पार्टी के पुराने नेताओं ने पहले ही नीतियों पर सवाल उठकार जी-23 ग्रुप बना लिया है. विरोध के कुछ ऐसे ही स्वर आगामी चुनाव में भी न खड़े हो जाएं इसकी आशंका कांगेस में बनी हुई है.


तो राहुल की राजनीति में लोकतंत्र की दुहाई वाला सियासी खेल जारी है लेकिन अपनी सतह पर वो कितने मजबूती से ख़ड़े हैं ये बात भी विचारणीय है.


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