पश्चिम बंगाल में चुनावी राजनीति हमेशा से ही हिंसक रही है और ऐसा कभी नहीं हुआ कि वहां कोई चुनाव बग़ैर किसी खूनखराबे के संपन्न हुआ हो. तीन दशकों तक वामपंथी दलों और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच खून की होली खेली जाती रही. साल 2012 में ममता बनर्जी ने जब वाम मोर्चा के इस मजबूत किले को तोड़ा, तब भी हिंसा का तांडव थमा नहीं सिर्फ किरदार बदल गये.


कई बरसों तक जो गुंडागर्दी वाम दल करते रहे, उसकी कमान ममता की टीएमसी के नेताओं के हाथ आ गई और उन्होंने चुन-चुनकर उनसे बदला लिया. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में इस हिंसा का स्वरुप पूरी तरह से बदल गया. चूंकि राज्य में बीजेपी एक बड़ी ताकत बनकर उभर रही थी, लिहाजा ममता ने लेफ्ट पार्टियों की बजाय बीजेपी को अपना दुश्मन नंबर वन मानना शुरू कर दिया और तबसे लेकर अब तक दोनों दलों के समर्थकों के बीच अनेकों खूनी झड़पें हो चुकी हैं जिसमें दर्जनों लोग मारे गये हैं.


बंगाल की चुनावी हिंसा अब उस नाजुक मोड़ पर जा पहुंची है जबकि हर दम कड़े सुरक्षा घेरे में रहने वाले बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तक इसका शिकार होने लगे हैं जो लोकतंत्र के लिये बेहद गंभीर चिंता का विषय है.


नंदीग्राम में ममता पर हुए हमले से उन्हें लोगों की जो सहानुभूति मिल रही है, वह वोटों में कितनी तब्दील हो पाती है, ये देखना महत्वपूर्ण है. हालांकि जब चुनाव में हार-जीत का पैमाना लोगों के वोट की बजाय खूनी हिंसा से तय होने लगे, तो ज़ाहिर-सी बात है कि इसमें जीतेगा वही जिसके पास खून बहाने की ताकत अपने विरोधी से ज्यादा है. लेकिन कोई भी सभ्य समाज और स्वस्थ लोकतंत्र इसकी इजाज़त नहीं देता.


बावजूद इसके सत्ता पाने की भूख ही है जिसके चलते हर राजनीतिक दल ने हिंसा को बढ़ावा देने की अघोषित मान्यता दी हुई है. अपने अध्यक्ष पर हुए हमले से बीजेपी को कितना फायदा होगा, या फिर ममता पर हुए या खुद कराये गये हमले से टीएमसी को कितना नुकसान झेलना पड़ेगा, यह तो दो मई को ही पता चलेगा. लेकिन पिछले इतने बरसों से चुनाव के वक़्त सियासी हिंसा को देखने वाला बंगाल का वोटर इतना जागरूक हो चुका है कि वह ऐसे हमलों के पीछे की असलियत जानता है कि इसमें कितना सच है और कितना झूठ. वह ये भी समझता है कि दूध का धुला कोई भी भी नहीं है और ऐसे हमले क्यों कराये जाते हैं.


फिर भी इस सच को मानना होगा कि पांच साल पहले तक खुद ममता बनर्जी ने भी इसकी कल्पना नहीं की होगी कि साल 2021 में उन्हें अपने अस्तित्व के लिए जूझना होगा.बंगाल का इतिहास है कि एक बार सत्ता में आ जाने वाली पार्टी करीब तीन दशकों तक सत्ता में रहती हैं.


दो साल पहले तक बेख़ौफ होकर सरकार चला रही ममता ने यह भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें वामपंथियों की ओर से नहीं, बल्कि उस भाजपा की तरफ से इतनी कड़ी चुनौती मिलेगी, जो दो दशकों से इस पूर्वी राज्य में पांव जमाने की कोशिश कर रही है. आखिर यह भी भला किसने सोचा था कि पांच दशकों तक एक-दूसरे के जानी दुश्मन बने रहे वामपंथी दल और कांग्रेस अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक-दूसरे से हाथ मिला लेंगे.


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