Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने साल 2008 में दायर एक याचिका को खारिज करते हुए कहा है कि हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम अपने आप में एक सजा हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने 13 साल पुराने आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में तीन आरोपियों को बरी कर दिया. इन आरोपियों को बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की है.


इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि आरोप तय करने के बाद पैदा हुई एक अपील 13 सालों तक लंबित रही. पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के अप्रैल 2009 के फैसले के बाद तीन अभियुक्तों ने याचिकाओं को दायर किया और उन्हें खारिज कर दिया गया. इस तरह से अपील 13 सालों तक लंबित रही. जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एएस ओका की बेंच ने 24 नवंबर को पारित एक आदेश में कहा कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली अपने आप में एक सजा हो सकती है! इस मामले में वास्तव में ऐसा ही हुआ है.


क्या था मामला?


दरअसल, सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे मामले की सुनवाई कर रहा था जिसमें एक छात्र ने स्कूल मैनेजमेंट की अनुशासनात्मक कार्रवाई के बाद आत्महत्या कर ली थी. छात्र के पिता ने शिकायत दर्ज कराते हुए शिक्षक, विभाग के अध्यक्ष और प्रिंसिपल के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया था कि इन लोगों ने छात्र को आत्महत्या के लिए उकसाया था. ट्रायल कोर्ट ने साल 2009 में अभियुक्तों के खिलाफ आरोप तय किए थे.


अभियुक्तों ने हाईकोर्ट के समक्ष आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसे ये कहते हुए खारिज कर दिया गया कि कार्यवाही प्रारंभिक चरण में थी और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी. इस प्रकार आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसने साल 2009 में अंतरिम रोक लगा दी.


क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?


बेंच ने कहा, ‘‘आत्महत्या के लिए उकसाने का एक मामला चौदह साल चलता रहा जिसमें एक छात्र को कॉलेज में दुर्व्यवहार के लिए दंडित किया गया था तथा अनुशासनात्मक कार्रवाई करने और उसके पिता को बुलाने का प्रयास किया गया था. हालांकि, अभिभावक नहीं आए और बाद में बच्चे ने आत्महत्या कर ली. एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति.’’


बेंच ने कहा कि शिकायतकर्ता ने जो कहा, आरोप पत्र उसका 'केवल एक समावेश' है. यह पिता, शिकायतकर्ता (जो प्रत्यक्षदर्शी नहीं था) का कहना है कि उनका बेटा नहीं बल्कि कुछ छात्र शोर कर रहे थे.’’ बेंच ने आरोपपत्र के अवलोकन के बाद कहा कि यह पाया गया कि कोई अन्य स्वतंत्र गवाह नहीं था, जिसका बयान दर्ज किया गया या जिसे वास्तविक घटना के गवाह के रूप में उद्धृत किया गया.


बेंच ने कहा, "हम एक पिता की पीड़ा को स्वीकार करते हैं जिसने एक युवा बेटे को खो दिया, लेकिन किसी संस्थान को चलाने के लिए जरूरी अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए दुनिया (वर्तमान मामले में, संस्थान और उसके शिक्षकों) को दोष नहीं दिया जा सकता.’’ पीठ ने कहा, ‘‘विपरीत हालात में इससे किसी भी शैक्षणिक संस्थान में एक अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी.’’


बेंच ने कहा कि पिता की पीड़ा को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में नहीं बदलना चाहिए था और निश्चित रूप से, जांच और निचली अदालत का दृष्टिकोण आसपास के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक यथार्थवादी हो सकता था. अपीलों को स्वीकार करते हुए कोर्ट ने कहा, ‘‘इस प्रकार, हम आरोप तय करने के 16 अप्रैल, 2009 की तिथि वाले आदेश और उसे बरकरार रखने वाले उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज करते हैं और आरोपियों को आरोपमुक्त करते हैं.’’


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