मौजूदा वक्त में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा गुजरात से गुजर रही है. यहां अगले महीने विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होने जा रहा है. इस यात्रा में आम आदमी पार्टी की सदस्य रहीं एक्टिविस्ट मेधा पाटकर के शामिल होने से कांग्रेस बीजेपी के निशाने पर आ गई है. दरअसल नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर अहम भूमिका में थीं और इस प्रोजेक्ट को लेकर पीएम मोदी से उनकी पुरानी अदावत रही है. यही वजह है कि  बीजेपी के नेताओं ने ही नहीं बल्कि पीएम मोदी ने भी इसे लेकर तंज किया है. 


पीएम का तंज ‘उस बहन के कंधे पर हाथ रखकर’


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार (21 नवंबर) को एक रैली में कांग्रेस और मेधा पाटकर पर अप्रत्यक्ष तौर पर निशाना साधा. रैली में पीएम मोदी ने कहा,  ''आज सुरेंद्रनगर जिले में मां नर्मदा की याद आना सहज है. मैं नर्मदा योजना के लिए सुरेंद्रनगर कई बार आऊंगा क्योंकि सबसे ज्यादा फायदा सुरेंद्रनगर जिले को ही होगा. लेकिन उनके बारे में सोचिए जिन्हें देशवासियों ने पद  से हटा दिया है. ऐसे लोग अब पद के लिए यात्रा कर रहे हैं.” गौरतलब है कि पीएम ने अपने गृह राज्य गुजरात में विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान धोराजी की रैली भी कुछ इसी तरह का हमला कांग्रेस पर बोला था.


पीएम ने रविवार 20 नवंबर को गुजरात के धोराजी की रैली में राहुल गांधी का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका निशाना वही थे. पीएम ने अपनी बात कुछ इस तरह से शुरू की कि आपने नर्मदा परियोजना का विरोध करने वाले लोगों के संग एक कांग्रेसी नेता की तस्वीर अखबारों में देखी होगी. 


उन्होंने कहा,“ नर्मदा परियोजना पर अड़ंगा लगाने  वाले लोगों के बारे में सोचें, नर्मदा कच्छ और सौराष्ट्र में हमारे लोगों के लिए पीने के पानी का इकलौता जरिया थी. तीन दशकों तक उस पानी को रोकने के लिए वे अदालत गए, आंदोलन किए. उन्होंने गुजरात को बदनाम करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. नतीजा ये हुआ कि विश्व बैंक सहित दुनिया में कोई भी गुजरात को पैसा उधार देने के लिए तैयार नहीं हुआ. कल कांग्रेस के एक नेता उस बहन के कंधे पर हाथ रखकर पदयात्रा पर निकले थे जिसने इस आंदोलन की अगुवाई की थी.” 


पीएम ने आगे कहा, "आपको उनसे सवाल करना चाहिए कि वे किस आधार पर आप लोगों से खुद को वोट देने के लिए कह रहे हैं."  पीएम मोदी ने ये भी कहा कि इससे जाहिर होता है कि ये लोग केवल गुजरात को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं. लोगों को कांग्रेस से सवाल करने की जरूरत है कि वो गुजरात को बर्बादी की तरफ धकेलने वाले लोगों के संग मेल-मिलाप क्यों बढ़ा रही हैं. 






'पाटकर एक अर्बन नक्सल'


गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने तो सीधे तौर पाटकर के लिए अर्बन नक्सल शब्द का इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं किया. सीएम पटेल ने कहा, “हमें याद रखना चाहिए कि वे कौन लोग थे जिन्होंने करीब 5 दशकों तक कच्छ को नर्मदा के पानी से दूर रखा था.


पटेल ने कहा, 'हम सभी जानते हैं कि नर्मदा बांध परियोजना का विरोध करने वाले वे अर्बन नक्सल कौन थे. उन अर्बन नक्सलियों में से एक मेधा पाटकर थीं. हम सभी जानते हैं कि ये लोग किस राजनीतिक दल से जुड़े थे.” बीजेपी के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में मेधा पाटकर की शिरकत कांग्रेस का गुजरात के विरोध में उठ खड़े होने जैसा है. 


उधर बीजेपी के कई नेताओं ने कांग्रेस के इस कदम को गुजरात के विरोध के तौर पर लिया है. इससे पहले इस मुद्दे को लेकर केंद्रीय मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और पुरुषोत्तम रूपाला  कांग्रेस को आड़े हाथों ले चुके हैं.


कौन हैं मेधा पाटकर?


बंबई (अब मुंबई) में 1 दिसंबर 1954 को जन्मी मेधा पाटकर एक मशहूर सोशल एक्टिविस्ट है. उनके पिता बसंत खानोलकर एक स्वतंत्रता सेनानी और श्रमिक संघ के नेता थे तो मां इंदुमती खानोलकर  डाक और तार विभाग में एक राजपत्रित अधिकारी थीं. उनके भाई महेश खानोलकर एक आर्किटेक्ट हैं. 


टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से उन्होंने सोशल वर्क से एमए किया. पाटकर आदिवासियों, दलितों, किसानों, मजदूरों और महिलाओं से संबंधित मुद्दों को लेकर बेहद संजीदा रही हैं. इन पर उन्होंने काफी काम भी किया है. खासकर देश-दुनिया में उनकी पहचान नर्मदा बचाओ आंदोलन यानी एनबीए की संस्थापक सदस्य के तौर पर है.


साल 1990 के दशक में एनबीए और पाटकर को सरदार सरोवर बांध (एसएसडी) की खुलकर आलोचना करने से देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहचान मिली. तब इस बांध को मध्य प्रदेश और गुजरात से होकर बहने वाली नर्मदा नदी पर बनाने का प्रस्ताव रखा गया था.


मेधा मानती थी कि इस बांध के बनने से  हज़ारों आदिवासियों नुकसान में रहेंगे. आदिवासियों की रिहाइश छीन जाएगी उन्हें विस्थापित होना पड़ेगा. किसानों की भी बर्बादी होगी. इन लोगों को न्याय और मुआवजा दिलाने के लिए और पूरा वक्त एनबीए पर लगाने के लिए उन्होंने अपनी पीएचडी बीच में ही छोड़ दी. इस आंदोलन के दौरान उन्हें वाहवाही मिली तो आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. अदालतों में उनके खिलाफ केस भी हुए.  


मेधा पाटकर और बीजेपी की पुरानी अदावत


एनबीए  की वजह से  पाटकर अक्सर विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई करती रहीं. वो एसएसडी प्रोजेक्ट की वजह से विस्थापित होने वाले लोगों के लिए मुआवजे की मांग के साथ ही इस प्रोजेक्ट को रोकने की मांग को लेकर कई दिनों तक भूख हड़ताल पर भी रहीं. साल 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने इस परियोजना को जारी रखने का आदेश दिया.  लेकिन पाटकर ने इस तरह के मुद्दों पर काम करना बंद नहीं किया.


साल 2002 के गुजरात दंगों के बाद अहमदाबाद के गांधी आश्रम में एक शांति सभा के दौरान पाटकर पर हमला किया गया था. इस मामले की आपराधिक शिकायत में अहमदाबाद शहर बीजेपी यूनिट के तत्कालीन अध्यक्ष सहित दो बीजेपी नेताओं का नाम आया था. इस हमले का  मुकदमा अभी भी अदालत में चल रहा है.


साल 2011 में मध्य प्रदेश में नर्मदा परियोजना से प्रभावित लोगों को लेकर उनके अदालत में झूठे हलफनामे दायर करने वाले मामले में उनकी काफी आलोचना भी हुई थी. दरअसल एमपी में नर्मदा प्रोजेक्ट से प्रभावित लोगों से जुड़े एक मामले में झूठा हलफनामा दायर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीश पीठ ने मेधा पाटकर को फटकार लगाई थी.


आप में शामिल होकर उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की. उन्होंने साल 2014 के लोकसभा चुनाव में आप के उम्मीदवार के तौर पर मुंबई की उत्तर-पूर्व सीट से चुनाव भी लड़ा था. हालांकि आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बॉडी से वरिष्ठ आप नेताओं योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को निकाले जाने से खफा मेधा ने अगले साल यानी 2015 में आप पार्टी को अलविदा कह दिया. इसके साथ ही उनके राजनीति के करियर का अंत हो गया. अब कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में शिरकत करने की वजह से वो राष्ट्रीय राजनीति की सुर्खियां बन गई हैं. 


पाटकर के साथी रहे अय्यर ने कहा हमें बेबकूफ बनाया


टाइम्स ऑफ इंडिया में 3 सितंबर 2022 को स्वामीनोमिक्स कॉलम में पाटकर के नर्मदा बचाओ आंदोलन में अहम साथी रहे स्वामीनाथन अय्यर ने “मेधा पाटेकर नर्मदा प्रोजेक्ट पर गलत थीं, क्या वो माफी मांगेंगी? “शीर्षक से लेख लिखकर हलचल मचा दी. उन्होंने इसमें साफ तौर पर लिखा कि नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मध्यप्रदेश को 10 साल पीछे कर दिया, मेधा पाटकर ने मुझे और मानवतावादियों को बेवकूफ बनाया.


मशहूर कॉलमनिस्ट अय्यर कभी इस आंदोलन के समर्थन में लिखा करते थे. सितंबर 2022 में उन्होंने लिखा कि मेधा पाटकर नर्मदा परियोजना के बारे में सही नहीं थीं. इस बीच नर्मदा में बहुत पानी बह गया और मध्य प्रदेश इन परियोजनाओं पर कम से कम 10 साल पिछड़ गया. नर्मदा पंचाट के फैसले के मुताबिक हमारा प्रदेश 2024  तक अपने हिस्से के पानी का इस्तेमाल कर पाने की हालत में नहीं है.


अय्यर ने लिखा कि मैं मेधा पाटकर की 1989 की सरदार सरोवर बांध पर चर्चा में शामिल हुआ था.पाटकर ने कहा कि आदिवासी संस्कृति खत्म हो जायेगी. नई बसाहट में वे क़र्ज़दार हो जायेंगे. उनकी दी हुई ज़मीनें चली जायेंगी.शहरों की झुग्गी बस्तियों में वे भिखारी बन कर रहेंगे.उनकी औरतों को वेश्यावृत्ति करनी पड़ेगी. इसलिए बांध का काम रूकना चाहिए.


बांध के फायदों के बारे में उन्होंने कहा कि अमीर  किसानों को ही इसका फायदा मिलेगा. वे बोलीं कि न तो कच्छ तक पानी पहुंचेगा, न कोई सिंचाई होगी. बांध बनाने के लिये भारी ब्याज दरों की वजह से सरकारें दिवालिया हो जायेंगीं. तब मुझे और दूसरे मीडिया को यह तर्क असरदार लगे और हमने प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ लेख लिखे.


आज साबित हो गया है कि मैं ग़लत था और हज़ारों बाक़ी मानवतावादी भी ग़ुस्से में होंगे कि किस तरह से हमें अपने मतलब के लिये मूर्ख बनाया गया. मैंने कोलंबिया विश्वविद्यालय के तहत बसाहटों मे जाकर शोध किया और नतीजे आंखें खोलने वाले हैं. आदिवासी उच्च स्तर का जीवन जी रहे हैं.


31 गांवों में  कागज मिलों को 32  करोड़ रुपये का बांस सप्लाई किया है. उन्हें दी गई ज़मीनों की क़ीमतें बढ़ गई हैं. पांच एकड़ वाले कई किसान आज करोड़पति हो गए हैं. यहां ये बात ध्यान देने की है कि अय्यर की गिनती वर्तमान सरकार के समर्थकों में कभी नहीं रही है. यहां तक कि उतरप्रदेश चुनाव में उन्होंने बीजेपी के हारने की संभावना जताई थी.


नर्मदा बचाओ आंदोलन से एमपी को बेहद नुकसान हुआ है. उन्होंने लिखा मैं खुद नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में प्रतिनियुक्ति पर रहा हूं .उस वक्त वहां 600 करोड़ की परियोजनाएं थी और उनकी लागत हर साल न्यूनतम 10 फीसदी बढ़ रही थी. सालाना १५० करोड़ रुपये का बजट मिलता था.


इसमें भी काफ़ी बड़ी रकम वेतन-भत्तों पर खर्च हो जाती थी. पिछली सरकार के 10 वर्ष कमोबेश ऐसे ही रहे. इस बीच आंदोलन ने प्रशासन-शासन और सभी अदालतों में जाकर रोड़े अटकाए. हालांकि ये भी सच है कि नतीजे उनके पक्ष में पूरी तरह से कभी नहीं रहे, लेकिन परियोजनाएं कम से कम एक दशक पिछड़ गई. नर्मदा घाटी के एक विशेषज्ञ का मानना है कि यह राजनीति में उलझ गया मामला भी है.


एक वक्त था जब माहौल बांध के खिलाफ था. आज जब इंदिरा सागर ,मान-जोबट जैसी परियोजनाओं के लाभ मिलने लगे हैं. विस्थापितों का जीवन खुशहाल हुआ है. निमाड़ में केसर की खेती होने लगी है. तब नर्मदा फायदे का मामला है.


बहुत से लोग मानते हैं कि विकसित देश नहीं चाहते है कि एशिया के देश विकसित हों, इसलिए वहां के स्वयंसेवी संगठन यहां के स्वयंसेवी संगठनों की आड़ लेकर यह एजेंडा पूरा करते हैं. ख़ैर इन मामलों में जांच चल रही है, इसलिये अभी जल्दबाज़ी में कोई टिप्पणी कर सही नहीं है. आख़िर विश्व बैंक के भेजे गए मोर्स कमीशन को स्वामीनाथन अय्यर ने “अर्बन नक्सल “ ऐसे ही नहीं कहा.


सरदार सरोवर बांध प्रोजेक्ट


सरदार सरोवर बांध प्रोजेक्ट भारत के पहले गृहमंत्री रहे लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल का महत्वकांक्षी सपना था. इसकी आधारशिला देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अप्रैल 1961 में रखी थी. एसएसडी वेबसाइट के मुताबिक, नर्मदा बेसिन में सिंचाई और बिजली उत्पादन के लिए नदी के दोहन की ये योजना 1946 में शुरू की गई थी.


नेहरू इस तरह के प्रोजेक्ट के समर्थक रहे थे. वो बांधों को "आधुनिक भारत के मंदिर" कहा करते थे. देश को आजादी मिलने के बाद पानी और बिजली उत्पादन की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई बांध परियोजनाओं का उद्घाटन किया गया. गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बीच नर्मदा के पानी के बंटवारे पर विवाद की वजह से डॉ एएन खोसला की अध्यक्षता में परियोजना का फैसला करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था.


साल 1965 में खोसला समिति ने 500 फीट के पूरे जलाशय के साथ एक ऊंचे बांध बनाने की सिफारिश की थी, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई. इस वजह से 4 साल बाद भारत सरकार ने अक्टूबर 1969 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण (NWDT) बनाया. इस मामले में 10 साल बाद एनडब्ल्यूडीटी ने 1979 में अपना आखिरी फैसला सुनाया. इसमें एमपी को सबसे अधिक पानी देने का निर्देश दिया गया. इसके बाद गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र को पानी देने को कहा गया. 


विश्व बैंक की मदद से 1980 के दशक में इस प्रोजेक्ट पर जमीनी तौर पर काम शुरू किया गया. जैसे ही ये प्रोजेक्ट शुरू हुआ कुछ स्थानीय लोगों और मेधा पाटकर जैसे कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. ये विरोध आदिवासियों और अन्य लोगों के सही  पुनर्वास को लेकर हुआ था. वर्षों की कानूनी बाधाओं के बाद साल 2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने इस 1,210 मीटर लंबे बांध का उद्घाटन किया. 


क्यों आया एसएसडी निशाने पर?


विश्व बैंक की मदद से 1980 के दशक में  सरदार सरोवर बांध प्रोजेक्ट पर जमीनी तौर पर काम शुरू किया गया. जैसे ही ये प्रोजेक्ट शुरू हुआ कुछ स्थानीय लोगों और मेधा पाटकर जैसे कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. ये विरोध आदिवासियों और अन्य लोगों के सही  पुनर्वास के  लेकर हुआ था. चिंता जताई जा रही थी कि एसएसडी से लोगों की जमींनें जलाशय में डूब जाएंगी. इन सब लोगों ने इस मामले को लेकर एनबीए बनाया.


इन लोगों को उम्मीद थी कि ये प्रोजेक्ट रोक दिया जाएगा. ऐसा न होने पर पाटकर ने विश्व बैंक से इस प्रोजेक्ट को 1985 में मिली वित्तीय मदद को निशाना बनाया. आखिरकार विश्व बैंक ने इस प्रोजेक्ट की समीक्षा की और दावा किया कि इसे मंजूरी देने से पहले भारत सरकार और विश्व बैंक ने इसका सही तरीके से मूल्यांकन नहीं किया था. नतीजा 31 मार्च, 1993 को सरकार ने विश्व बैंक के  अधिकृत किए गए लोन को रद्द कर दिया.


सुप्रीम कोर्ट के बाद के फैसले के मुताबिक, विश्व बैंक ने 1990 की एक रिपोर्ट में कहा, " महत्वपूर्ण धारणाएं जिन पर परियोजनाएं आधारित हैं, अब संदिग्ध या निराधार मानी गई हैं. नतीजों की परवाह किए बगैर पर्यावरणीय और सामाजिक समझौता किए गए हैं,और इनका किया जाना अभी भी जारी है. नतीजा ये रहा कि फायदों को अधिक गिनाया गया है, जबकि सामाजिक और पर्यावरणीय लागतों को अक्सर कम करके आंका गया है. "


साल 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने  कुछ शर्तों के साथ बांध के निर्माण को आगे बढ़ाने की मंजूरी दी. सबसे अहम शर्त यह थी कि 5 मीटर की बांध की ऊंचाई में बढ़ोतरी से विस्थापित सभी लोगों का संतोषजनक तरीके से पुनर्वास किया जाए और यह प्रक्रिया हर बार 5 मीटर की ऊंचाई में बढ़ोतरी पर  दोहराई जाए.
 
साल 2017 में  पीएम मोदी ने 2018 के राज्य चुनावों से कुछ महीने पहले अपने जन्मदिन पर परियोजना का उद्घाटन किया.  उन्होंने कहा, 'जब वर्ल्ड बैंक ने फंड देने से मना किया तो गुजरात के मंदिरों ने चंदा दिया. इसलिए यह प्रोजेक्ट किसी खास पार्टी या सरकार का नहीं है. यह हर एक  व्यक्ति की परियोजना है. 


वहीं पुनर्वास नीतियों की आलोचना जारी रखते हुए पाटकर ने 2017 में कहा, "जब महाराष्ट्र और गुजरात हजारों प्रभावित लोगों को  जमीन देने में  सक्षम रहे हैं, मध्य प्रदेश में केवल 53 लोगों को उनके बेदखली के लिए भूमि का मुआवजा दिया गया है."