Karnataka Chief Minister Race: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत पाने के बाद कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद को लेकर मंथन खत्म हो गया है. पार्टी ने सीएम पद के लिए सिद्धारमैया का नाम फाइनल किया है और डीके शिवकुमार को डिप्टी सीएम का पद देने का फैसला किया है. यानि सिद्धारमैया कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार पर भारी पड़े हैं. इससे पहले भी एक समय में वो मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे पर 20 साबित हुए थे.


जो सिद्धारमैया कभी मल्लिकार्जुन खरगे पर भी इतने भारी पड़ गए थे कि उन्हें किनारे लगा दिया था, वही सिद्धारमैया अब मल्लिकार्जुन खरगे की मदद से फिर से डीके शिवकुमार पर भारी पड़ते नजर आए. वो भी तब जब कर्नाटक कांग्रेस में उनके पास कोई पद भी नहीं है. पहले लोकदल, फिर जनता दल, फिर जनता दल सेक्युलर और फिर कांग्रेस में आकर सिद्धारमैया का कद ऐसे कैसे बढ़ गया कि वो एक-एक करके अपने विरोधियों को किनारे लगाते गए और कैसे वो आज की तारीख में भी 10 साल पुरानी स्थिति में आकर खड़े हो गए हैं.


सिद्धारमैया ने खरगे को लगा दिया था किनारे


कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले मल्लिकार्जुन खरगे साल 2013 में कर्नाटक में कांग्रेस के मुख्यमंत्री बनने वाले थे, लेकिन तब महज सात साल पहले एचडी देवगौड़ा की पार्टी से निकाले गए सिद्धारमैया ने उन्हें मात दे दी थी और खुद मुख्यमंत्री बन गए थे. उस वक्त भी परिस्थितियां बिल्कुल ऐसी ही थीं, जैसी की आज हैं.


उस वक्त भी कांग्रेस में मुख्यमंत्री बनने के दो दावेदार थे. सबसे बड़े दावेदार खुद मल्लिकार्जुन खरगे थे, जो मनमोहन सरकार में मंत्री थे. जबकि दूसरे दावेदार सिद्धारमैया थे. वहीं मुख्यमंत्री की रेस में एम वीरप्पा मोइली का भी नाम उछला था, जो केंद्र की मनमोहन सरकार में कैबिनेट मंत्री हुआ करते थे.


इसके अलावा जी परमेश्वर तब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे. वो भी मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे. ऐसे में कांग्रेस आलाकमान की ओर से केंद्रीय मंत्री एके एंटनी, कर्नाटक के प्रभारी महासचिव मधुसूदन मिस्त्री, कर्नाटक स्क्रीनिंग कमिटी के चेयरमैन लुईजिन्हो फलेरियो और केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह को पर्यवेक्षक बनाकर भेजा गया था.


उन्होंने जीते हुए सभी 121 विधायकों से बात की थी. इसके बाद फिर सीक्रेट वोटिंग हुई और तब कांग्रेस आलाकमान ने सीक्रेट वोटिंग के जरिए जो नाम तय किया वो सिद्धारमैया का था. उन्होंने खरगे और बाकी दूसरे नेताओं के मुकाबले ज्यादा विधायकों का समर्थन हासिल किया था.


खरगे का साथ मांग रहे सिद्धारमैया


एक बार फिर10 साल बाद वक्त ने पलटी खाई है. मल्लिकार्जुन खरगे जुम्मा-जुम्मा सात साल पहले कांग्रेसी बने एक नेता से राजनीतिक दांव-पेच में मात खा गए थे,अब वो उस पोजिशन पर हैं कि वो चाहें तो उस नेता को मुख्यमंत्री बना दें और चाहे तो उसकी पूरी राजनीति को ही किनारे कर दें. अब मल्लिकार्जुन खरगे कोई आम नेता नहीं बल्कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. खुद आलाकमान हैं. हालांकि, इन्हीं सिद्धारमैया के सामने कभी मल्लिकार्जुन खरगे को सीक्रेट वोटिंग का सामना करना पड़ा था और सिद्दारमैया से हार माननी पड़ी थी,


सिद्धारमैया का सफर


सिद्धारमैया के लिए कांग्रेस में इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं रहा है, क्योंकि उनकी राजनीति की शुरुआत ही कांग्रेस विरोध से हुई थी. उन्होंने साल 1983 में विधानसभा का पहला चुनाव मैसूर के चामुंडेश्वरी से जीता था और तब उन्हें भारतीय लोकदल का साथ मिला था, जिसकी पूरी राजनीति ही कांग्रेस विरोध और खास तौर से इंदिरा विरोध पर टिकी थी. इसका गठन स्वतंत्र पार्टी, उत्कल कांग्रेस, भारतीय क्रांति दल और सोशलिस्ट पार्टी के मर्जर से हुआ था, जिसके नेता चौधरी चरण सिंह बने थे.


उस साल जब कर्नाटक में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी और जनता पार्टी की ओर से रामकृष्ण हेगड़े कर्नाटक के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने, तो सिद्धारमैया ने उनका समर्थन किया. हालांकि, ये सरकार टिक नहीं पाई और ढाई साल के अंदर ही कर्नाटक में मध्यावधि चुनाव हो गए. उस चुनाव में भी सिद्धारमैया को जीत मिली थी, लेकिन तब वो भारतीय लोकदल को छोड़कर जनता दल के साथ आ गए थे.


राम कृष्ण हेगड़े फिर मुख्यमंत्री बने और उस सरकार में सिद्धारमैया पहली बार कैबिनेट में मंत्री बने. इसके साथ ही वो जनता दल में अहम पदों पर काबिज होते रहे. 1989 में विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद 1992 में उन्हें जनता दल का महासचिव बनाया गया. 1994 में जब कर्नाटक में फिर से जनता दल की सरकार बनी तो एचडी देवगौड़ा मुख्यमंत्री बने और उस सरकार में भी सिद्धारमैया मंत्री बने. फिर 1996 में जब एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने तो सिद्धारमैया को लगा कि वो अब मुख्यमंत्री बन सकते हैं.


ऐसा हुआ नहीं और उन्हें डिप्टी सीएम की कुर्सी से संतोष करना पड़ा. मुख्यमंत्री बने जेएच पटेल 1999 में जनता दल के टूटने के बाद सिद्धारमैया देवगौड़ा के साथ रहे और उनकी पार्टी जनता दल सेक्युलर के प्रदेश अध्यक्ष बन गए, लेकिन जैसे ही एचडी देवगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी की कर्नाटक की राजनीति में एंट्री हुई और सिद्धारमैया कुमारस्वामी की राजनीति के लिए बड़े खतरे के तौर पर उभरने लगे, देवगौड़ा ने सिद्धारमैया को किनारे लगा दिया. पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. ये साल 2005 की बात है.


कांग्रेस में शामिल हुए सिद्धारमैया


इसके अगले ही साल 2006 में कांग्रेस के मुख्यालय 10 जनपथ में 22 जुलाई 2006 एक प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई. उस दिन कर्नाटक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री धरम सिंह और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एके एंटनी की मौजूदगी में सिद्धारमैया ने प्रेस कॉन्फ्रेंस को लीड किया .


उन्होंने कहा, "मैं सोनिया गांधी और कांग्रेस के हाथ मजबूत करने के लिए कांग्रेस का दामन थाम रहा हूं. अभी आज मैं अकेले कांग्रेस में शामिल हो रहा हूं. जनता दल सेक्युलर के और भी नेता कांग्रेस में शामिल होना चाहते हैं. उन्हें अगस्त में होने वाली एक पब्लिक रैली में कांग्रेस की सदस्यता दिलाई जाएगी."


उस दिन से कांग्रेस की धुर विरोधी पार्टियों के सिरमौर रहे सिद्धारमैया खांटी कांग्रेसी हो गए. इसके बाद वो पुराने कांग्रेसियों को मात देते हुए सत्ता की सीढ़ियों पर इतने ऊंचे पहुंचे कि 2013 में वो कर्नाटक के मुख्यमंत्री तक बन गए और अब 10 साल बाद वो फिर से उसी इतिहास को दोहराने की कगार पर हैं. जबकि 10 साल पहले भी उन्होंने यही कहा था कि ये मेरा आखिरी चुनाव है और 10 साल बाद भी दो चुनाव लड़कर उन्होंने कहा था कि ये मेरा आखिरी चुनाव है. ऐसे में न तो वो आखिरी चुनाव था और न ही ये आखिरी चुनाव होगा.


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