नई दिल्लीः भारत में हिंदी पत्रकारिता की मशाल को जलते हुए आज 195 बरस पूरे हो गये. इस लंबे सफर में कई तरह के उतार-चढ़ाव आये और अनगिनत चुनौतियों का सामना करने वाली हिंदी पत्रकारिता को भी आखिर बाजार के मुताबिक खुद को बदलना पड़ा.


नतीजा यह हुआ कि आजादी से पहले तक जो एक मिशन था वह पेशा बन गया और बीते कुछ सालों में उसने एक सफल उद्योग का रूप ले लिया. हर साल 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है लेकिन इस बार यह उन्हें समर्पित है जिन पत्रकारों ने कोरोना महामारी की परवाह किये बगैर हर खबर लोगों तक पहुंचाते रहे लेकिन खुद अपनी जिंदगी की जंग हार गये.


कोरोना के चलते जान गंवाने वाले पत्रकारों के परिजनों को दस-दस लाख रुपये की आर्थिक मदद


फिलहाल केंद्र सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है कि पूरे देश में ड्यूटी करते हुए कितने पत्रकारों ने कोरोना से अपनी जान गंवाई. यह भी संभव है कि डॉक्टरों के मुकाबले यह आंकड़ा बहुत ज्यादा हो. इसके लिए पहले हर हर राज्य को जिलेवार आंकड़ा जुटाना होगा और फिर उसे अंतिम रुप देकर केंद्र को भेजना होगा. उस के बाद पता चलेगा कि अन्य 'कोरोना वारियर्स' की तरह खबरों के कितने योद्धा हमसे विदा हो गए. पत्रकार भी 'फ्रंटलाइन योद्धा' हैं इसलिये सरकार को उनकी भी उतनी ही चिंता करनी चाहिए.


हालांकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आज ही कोरोना संक्रमण से अपनी जान गंवाने वाले पत्रकारों के परिजनों को दस-दस लाख रुपये की आर्थिक मदद देने का ऐलान किया है. तीन दिन पहले ही केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने भी कोरोना से मरने वाले 26 पत्रकारों के परिवारों को पांच-पांच लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है.


ये संख्या उनकी है जो भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार थे और जिनके परिवारों ने पत्रकार कल्याण कोष से मदद के लिए आवेदन दिया था. महंगाई के इस दौर में यह मदद ऊंट के मुंह में जीरे के समान है,लिहाजा सरकार को यह भी सोचना होगा कि जहां अब कोई और कमाने वाला नहीं है. ऐसे दिवंगत पत्रकार की पत्नी या उनके किसी एक बच्चे को सरकारी नौकरी देकर सामाजिक सुरक्षा का दायित्व निभाने की पहल करें.


सच दिखाना मीडिया का दायित्व है


आधुनिक युग में टेक्नोलॉजी ने सूचना प्रसारित करने को जितना तेज व सुगम बनाया है, तो उसी लिहाज से पत्रकारिता के मानदंड भी बदले हैं और खबरों को पेश करने का अंदाज भी ज्यादा धारदार हुआ है. लेकिन सबसे तेज और सबसे पहले खबर देने की इस होड़ ने कई मर्तबा पत्रकारिता की जिम्मेदारियों को पीछे छोड़ देने की गलतियां भी की हैं. कोरोना महामारी के दौरान इसके उदाहरण देखने को मिले हैं.


अमेरिका में कोरोना से छह लाख लोगों की मौत हुई लेकिन शायद ही वहां के किसी न्यूज़ चैनल ने दम तोड़ते लोगों के दृश्य दिखाए हों. लेकिन भारत में इसके ठीक उलट हुआ. लोगों के सराकारों का ध्यान रखना और उनके प्रति अपनी संवेदनशीलता जाहिर करना, मीडिया का पहला फ़र्ज़ होना चाहिये. लेकिन खबर परोसने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने इसे लगभग भुला दिया है. अगर सच दिखाना मीडिया का दायित्व है,तो ख़ौफ़ज़दा माहौल में लोगों को दिलासा देना और उनमें उम्मीद की एक नई किरण जगाना भी मीडिया का ही उत्तरदायित्व है.


यदि सरकार की उपलब्धियां बताना मीडिया का कर्तव्य बनता है तो विरोध की आवाज को समुचित महत्व देना भी उसका फ़र्ज़ है. यह भी सच है कि कई अवसरों पर सरकारें अपनी कमियों-गलतियों से जुड़ी खबरों को सामने नहीं आने देतीं. लेकिन अंग्रेजी की पुरानी कहावत है कि, "जो कुछ भी दबाया या छुपाया जा रहा है उसे उजागर करना ही पत्रकारिता है,बाकी सब पीआर है." उम्मीद करनी चाहिये कि भारतीय मीडिया इस कहावत को हमेशा चरितार्थ करता रहेगा.


यह भी पढ़ें.