Jammu Kashmir Accession To India: स्वतंत्रता के बाद देशभर की रियासतों ने भारत में विलय स्वीकार कर लिया, लेकिन कश्मीर की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी और हिंदू महाराजा हरि सिंह के बीच भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने को लेकर फैसला लेने में 2 महीने से अधिक का वक्त लग गया. वह 26 अक्टूबर 1947 की ही तारीख थी, जब कश्मीर के महाराज हरि सिंह ने भारत में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, वह भी जंग के माहौल में.


24  अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी  सेना की मदद से पाकिस्तान के कबाइली लड़ाकों ने श्रीनगर पर कब्जा करने के लिए कश्मीर पर हमले करने शुरू कर दिए थे. आज इस घटना के 77 सालों बाद हम आपको एक बार फिर बताते हैं कि किन परिस्थितियों में कश्मीर का भारत में विलय हुआ और उसके बाद से आज तक क्यों यहां अमन कायम नहीं हो पाया है.


कश्मीर को भारत में विलय करने की कवायद
कश्मीर में भारत के विलय की कहानी 15 अगस्त 1947 को मुल्क की आजादी के साथ ही शुरू हो गई थी. देश की आजादी  के साथ ही अंग्रेजों की कुटिल चाल ने भारत को दो टुकड़ों में बांट दिया था. अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की अध्यक्षता में भारत और पाकिस्तान के मुल्क के तौर पर अस्तित्व को लेकर स्वतंत्रता अधिनियम बनाया गया था. इसके मुताबिक लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी राजवाड़े को यह साफ कर दिया था कि उनके पास स्वतंत्र होने का विकल्प नहीं है. भौगोलिक सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती और सभी राजवाड़ों को अपने आसपास के भारत या पाकिस्तान में से किसी एक मुल्क में शामिल होना होगा.


आजादी के समय भारत में थी 500 से अधिक रियासतें
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक उस समय भारत में 500 से ज्यादा रियासतें थी, जो धीरे-धीरे भारत में विलय हो गईं, लेकिन कश्मीर भारत या पाकिस्तान में से किसी के भी साथ ना जाकर स्वतंत्र मुल्क बना रहना चाहता था. यहां की एक चौथाई आबादी मुस्लिम थी और अंतिम डोगरा सम्राट महाराजा हरि सिंह  हिन्दू थे. बंटवारे के वक्त जिस कदर भारत और पाकिस्तान में कत्लेआम मचा उसे देखते हुए वह कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने के लिए वह कभी भी तैयार नहीं हो पा रहे थे. खास बात ये है कि जब देश का बंटवारा हुआ, तब परिवहन, भाषा, संस्कृति और लोगों के आपसी संबंधों को देखते हुए कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने के आसार थे. हालांकि आजादी के ठीक बाद जिस कदर पाकिस्तान में हिंदू आबादी का कत्ल हुआ, उसके बाद हरि सिंह इस पर फैसला नहीं ले पा रहे थे.


कश्मीर के भारत में शामिल होने की भनक लगते ही हुआ हमला
इस बीच भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल रियासतों को भारत में शामिल करने के लिए लगातार रणनीति बनाकर उसे मूर्त रूप दे रहे थे. कश्मीर को भी भारत में शामिल करने की कवायद तेज हो गई थी. इसकी भनक जैसे ही पाकिस्तान को लगी, 24 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान की नई सरकार और सेना की मदद से कबाइली लड़ाकों ने कश्मीर पर धावा बोल दिया. वे श्रीनगर पर कब्जा करना चाहते थे.


कत्लेआम से घबराकर जम्मू आ गए थे महाराजा हरि सिंह 
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक जब पाकिस्तानी कबाइलियों की फौज श्रीनगर की ओर बढ़ी और गैर मुसलमानों की हत्या और उनके साथ लूटपाट की खबरें आने लगीं, तब हरि सिंह हमले के एक दिन बाद ही 25 अक्टूबर को शहर छोड़कर जम्मू के लिए रवाना हो गए थे. उनकी गाड़ियों का काफिला जम्मू के महल में सुरक्षित पहुंचाया गया. उस समय के राजकुमार करण सिंह याद करते हुए कहते हैं कि उनके पिता ने जम्मू पहुंचकर ऐलान कर दिया था, "हम कश्मीर हार गए."


हरि सिंह ने मांगी भारत से मदद


यहां पहुंचकर उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मदद मांगी, लेकिन नियमानुसार श्रीनगर में भारतीय सेना तब तक नहीं घुस सकती थी, जब तक कश्मीर का भारत में विलय ना हो जाए. लॉर्ड माउंटबेटन ने इस बारे में स्थिति पहले ही स्पष्ट कर दी थी, जिसके बाद हरि सिंह के पास भारत में विलय के अलावा कश्मीर को बचाने का दूसरा रास्ता नहीं था.


सरदार वल्लभभाई पटेल की रणनीति आई काम
लौह पुरुष के नाम से जाने जाने वाले देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल कश्मीर को भारत में शामिल करने के लिए लंबे समय से प्रयासरत थे. जैसे ही हरि सिंह ने मदद की गुहार लगाई, गृह मंत्रालय की ओर से तैयार किए गए विलय के दो पन्नों के दस्तावेज लेकर गृह मंत्रालय के उस समय के सचिव बीपी मेनन 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू पहुंचे थे और उसी दिन हरि सिंह ने हस्ताक्षर कर दिया था. इसके बाद 27 अक्टूबर की सुबह भारतीय फौज को श्रीनगर की हवाई पट्टी पर उतारा गया. सेना ने ऑपरेशन शुरू किया और कबाइली लड़ाकों को ना केवल श्रीनगर में घुसने से रोका बल्कि कश्मीर घाटी से भी उन्हें पीछे  धकेल दिया. हालांकि रियासत में पाकिस्तान समर्थकों की तादाद भी कम नहीं थी, जिसकी वजह से घाटी में आतंकी पैर पसारने लगे और दुनिया के इस खूबसूरत टुकड़े पर आतंक की लकीर खिंचती चली गई.


इंदिरा गांधी ने कह दिया था - जनमत संग्रह की गुंजाइश नहीं
ऐतिहासिक दस्तावेजों की माने तो भारत-पाकिस्तान के बीच इस पहली जंग के बाद से ही कश्मीर में जनमत संग्रह की आवाज मुखर होने लगी थी. तब के सबसे बड़े राजनीतिक हस्ती शेख अब्दुल्ला ने भी कश्मीर के भारत में विलय का समर्थन किया था, लेकिन बाद में उन्होंने भी आजाद कश्मीर की मांग तेज कर दी थी. आग में घी बना 1952 में भारत सरकार का वह फैसला, जिसमें अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया गया था. 70 के दशक तक ऐसा चलता रहा, लेकिन फिर 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आग्रह पर शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में जनमत संग्रह के लिए गठित किए गए फ्रंट को भंग कर दिया. तब इंदिरा गांधी ने 24 फरवरी 1975 को एक बयान में कहा था कि समय पीछे नहीं जा सकता. यानि  कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और जनमत संग्रह की गुंजाइश नहीं है.


मोदी सरकार ने खत्म किया जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा
हालांकि जम्मू कश्मीर को मिले विशेष दर्जे की वजह से यहां दूसरे राज्यों के नागरिकों को जमीन खरीदने की छूट नहीं थी ना ही दूसरे राज्य के नागरिकों को यहां स्थाई तौर पर बसने की. यहां तक कि कश्मीरी लड़कियां अगर भारत के दूसरे राज्यों के लड़कों से शादी करती थीं तो उनकी भी नागरिकता खत्म कर दी जाती थी. इसका काफी नुकसान भारत को होता रहा, जिसके बाद वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने दूसरे टर्म में 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाकर इसे जम्मू, कश्मीर और लद्दाख तीन केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया है


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