नई दिल्ली: साहित्य में अनेक विधाएं हैं और सभी प्रचलित भी है. वर्तमान में हास्य-व्यंग्य खूब प्रचलित विधा है, लेकिन समस्या यह है कि आज मंचों पर हास्य तो अधिक होता है लेकिन जब बात व्यंग्य की आती है तो इसके नाम पर ज्यादातर फूहड़ता या द्विअर्थी उक्तियां प्रस्तुत की जाती हैं, जबकि इस बात को समझने की आवश्यकता है कि व्यंग्य अपने आप में गंभीर विषय है.


जब-जब बात व्यंग्य की आती है को एक नाम ज़हन में आ ही जाता है वह नाम है हरिशंकर परसाई का. वही परसाई जिन्होंने धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक जैसे कई विषयों में व्याप्त कुरीतियों और करप्शन पर लिखा. परसाई व्यंग्य लेखक को डॉक्टर की जगह रखते थे. जैसे डॉक्टर पस को बाहर निकालने के लिए दबाता है, वैसे व्यंग्य लेखक समाज की गंदगी हटाने के लिए उस पर उंगली रखता है.


हरिशंकर परसाई ने ज़िंदगी के अलग-अलग रंगो को व्यंग्य की रचनाओं में ढ़ाला. ‘एक मध्यवर्गीय कुत्ता’ लेख में कुत्ते की अहमियत आदमी से बढ़ जाने पर व्यंग्य करते हुए लिखा “ माफ़ करें. मैं बंगले तक गया था. वहां तख्ती लटकी थी. कुत्ते से सावधान .मेरा ख्याल था, उस बंगले में आदमी रहते हैं पर नेमप्लेट कुत्ते की टंगी दिखी.” एक साधारण सी दिखने वाली यह पंक्ति अपने आप में पूरी कहानी कह देती है. कुलीन वर्ग में कुत्तों की अहमियत बढ़ जाने पर परसाई ने क्या खूब व्यंग्य किया.


हमारे देश में क्षेत्रवाद का मुद्दा कई बार उठा. महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक राजनीतिक दल क्षेत्रवाद का जिक्र करते रहते हैं. देश में फैले क्षेत्रवाद पर परसाई दुखी होते हैं और जो व्यंग्यात्मक पंक्ति लिखते हैं जो आज तक प्रासंगिक है.
“जनगण एक दूसरे से भिड़ रहे हैं. सब टूट रहा है. किस भारत भाग्य विधाता को पुकारें ? ''


एक अन्य उदाहरण की बात करें तो उन्होंने हमारे समाज में व्याप्त झूठी शानो-शौकत पर व्यंग्य किया. बात-बात में जो लोग कहते हैं कि हमारी नाक कट गई उनपर परसाई जी ने व्यंग्यात्मक लहजे में क्या शानदार लिखा “ मेरा ख्याल है नाक की हिफाज़त सबसे ज्यादा इसी देश में होती है और या तो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा बहुत तेज, जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है. ”


समाज में व्याप्त बुराइयों को निष्पक्षता से देखना एक व्यंग्यकार के लिए जरूरी है. परसाई ने भी तथाकथित क्रांतिकारियों और आध्यात्मिकों पर प्रहार करते हैं. निंदा करने की बढ़ती प्रवृति को देखते हुए वे चुटकी लेते हैं “ निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निंदा खून साफ करती है, पाचन क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं. निंदा पायरिया का शर्तिया इलाज है. संतों में परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वह स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं. ”


प्रशासन और सत्ता की मार हमेशा गरीब और निर्बल को ही पड़ती है. इसको लेकर परसाई ने लिखा,'' शासन का घूंसा किसी बड़ी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बड़ी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड़ जाता है.''


देश की अखंडता में एकता पर भी परसाई ने कलम चलाई और क्या खूब लिखा, '' कैसी अद्भुत एकता है. पंजाब का गेहूं गुजरात के कालाबाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है. देश एक है. कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है, हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पड़ा है.सब सीमायें टूट गयीं.''


हरिशंकर परसाई ने जिस विषय पर भी कलम चलाई वह आज तक प्रासंगिक है. उनकी बातें कड़वे सच को बयां करती है. वह आपको जख्म तो देगी लेकिन साथ ही होठों पर हल्की हंसी भी लाएगी और आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि हम किस तरफ बढ़ रहे हैं. यही सफल व्यंग्यकार की पहचान है.


आजादी के बाद बने भारत के विद्रूप चेहरे को जैसा आईना हरिशंकर परसाई ने दिखाया है वह अनन्य है. उन्होंने अपने समय के बड़े से बड़े भ्रष्ट नेता, सेठ, मित्र, अफसर, पुलिस, पुजारी, धर्मोपदेशक यानी किसी को नहीं बख़्शा. वह अजातशत्रु और लोकप्रिय बनने के चक्कर में कभी नहीं पड़े. हरिशंकर परसाई की पैनी नज़र ही है जो उन्हें साहित्य जगत का सबसे सफल व्यंग्यकार बनाती है.