Farm Laws Withdrawn: कृषि  कानूनों को वापस लेकर बीजेपी ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले बड़ा दाव खेला है. एक कदम पीछे खींचकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जहां पंजाब में बीजेपी के लिए राह आसान बनाने की कोशिश की है, वहीं उनके इस फैसले में पश्चिम उत्तर प्रदेश में अपने दरक रहे बड़े वोट बैंक को फिर से कब्जाने की जुगत भी दिखाई देती है. जानिए कृषि कानून वापस लिए जाने की पूरी कहानी क्या है.


बीजेपी के सूत्रों के मुताबिक़, पीएम मोदी को पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीजेपी के लिए कठिन हालत की जानकारी पार्टी अध्यक्ष की तरफ़ से समय-समय पर दी गयी थी. पार्टी की ओर से निकाली गई किसान यात्रा से भी जो इनपुट मिले थे, उसने भी पार्टी नेतृत्व की आंखे खोल दी थी. अब से तक़रीबन डेढ़ महीने पहले सरकार में उच्च स्तर पर कृषि क़ानूनों की वापसी को लेकर सहमति बनना शुरू हो गयी थी, लेकिन इसके बावजूद सरकार में छोटे किसानो के हितों को आसानी से छोड़ने का मोह नहीं त्याग पा रहे थे.


ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था केंद्रीय नेतृत्व


उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को दिल्ली की राह के तौर पर देखा जाता रहा है. कोई भी दल उत्तर प्रदेश की राह को कठिन होते नहीं देखना चाहता है. सबसे ज़्यादा लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में अगर थोड़ी सी कसर की वजह से सत्ता चली जाए तो दिल्ली का रास्ता कठिन होते देर नहीं लगती है, इसलिए केंद्रीय नेतृत्व क़तई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता था.


जो लोग इसे सिर्फ़ पंजाब के विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र इसे केंद्र सरकार का फ़ैसला मानते है, उनकी जानकारी के लिए बता दें कि पंजाब में बीजेपी का जनाधार वैसे भी चौथे नम्बर की पार्टी का है. पहले नम्बर पर कांग्रेस और अकाली दल की दावेदारी आती-जाती रहती है, जबकि पिछले विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी अकाली दल को पीछे करके दूसरे नम्बर की पार्टी बन गयी और बीजेपी चौथे नम्बर की पार्टी बन गयी. लेकिन कृषि क़ानून वापस लेने के फ़ैसले के बाद भी बीजेपी को वहां कोई ख़ास बदलाव की उम्मीद नहीं है. हां ये जरूर है कि अब बीजेपी नेताओं के लिए पंजाब में प्रचार करना ज़रूर आसान हो जाएगा और पुराने गठबंधन अकाली दल सहित कुछ नए राजनीतिक पार्टनर जैसे पंजाब पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी मिल सकते हैं.


पश्चिमी यूपी के जाटों को फिर से बीजेपी के साथ जोड़ने की कोशिश


दरअसल पंजाब सीमाई सूबा है. वहां की चुनौतियां बिलकुल अलग है. विदेशी निगाहें ख़ास तौर पर आईएसआई की नज़रें, खालिस्तानी संगठन और धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश लगातार जारी थी. चुनावी मज़बूरी और विदेशी साज़िश को नाकाम करना कृषि कानूनो की वापसी में बड़े अहम भूमिका निभाई हैं.  हरियाणा में भी इस क़ानून का ख़ासा असर था. मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को भी ज़बरदस्त विरोध का सामना करना पड़ रहा था. अब कृषि क़ानूनों की वापसी से वहां भी जाट राजनीति के ज़रिए बीजेपी विरोध को हवा देने की राजनीति किनारे लग जाएगी, हालांकि इस बहाने जाटों को लामबंद ज़रूर कर दिया है. अब बीजेपी के सामने बड़ी चुनौती इस लामबंदी को तोड़कर पश्चिमी यूपी में जाटों को फिर से बीजेपी के साथ जोड़ना है.


सरकार के एक बड़े मंत्री abp न्यूज़ को बता चुके थे कि कृषि क़ानून किसानों के हित में और कृषि सुधारों में बड़ा मील का पत्थर हैं. हम इनकी वापसी के हक़ में नहीं है, लेकिन देखना होगा कि पहले धैर्य कौन छोड़ता है. आंदोलनकारी किसान या सरकार. आख़िरकार सरकार का धैर्य जवाब दे गया और कृषि क़ानूनो की वापसी का रास्ता साफ़ हो गया.


...तो क्या यूपी में बीजेपी के लिए बज जाती खतरे की घंटी


उत्तर प्रदेश की राजनीतिक बिसात ने कृषि क़ानूनों की वापसी में सबसे बड़ी भूमिका रही. यहां जाट-सिख लामबंदी ने बीजेपी के लिए हालत बेहद कठिन कर दिए थे. चौधरी अजित सिंह के लोकदल और समाजवादी पार्टी के गठबंधन से हालात और भी बुरे हो जाते. ये गठबंधन 26 ज़िलों की 136 सीटों पर सीधा असर डालता, जो पूरे उत्तर प्रदेश की कुल सीटों का एक तिहाई है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर पहले ही अलग होकर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर चुके हैं. सत्ता विरोधी रुझान की वजह से भी वोटों का बिखराव होना स्वाभाविक सी प्रक्रिया है. पार्टी के रणनीतिकार अमित शाह ने भी इन माइक्रो फ़ैक्टर का विश्लेषण बारीकी से किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर इस नतीजे पर पहुंच गए कि अब वक्त आ चुका है जब कृषि क़ानूनों को वापस ले लेना चाहिए.


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