दुनिया में जब भी सबसे बड़े वैज्ञानिकों की बात आती है अल्बर्ट आइंस्टीन का नाम सबसे पहले जुबान पर आता है. ये वो वैज्ञानिक हैं जिनका सिद्धांत पढ़ना विज्ञान के छात्र होने की पहली शर्त है लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि एक ऐसा गणितज्ञ भी है जिनके बारे में दावा किया जाता है कि आइंस्टीन के सिद्धांत को चुनौती दी थी. उस शख्स का नाम है गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह. 


बिहार के जाने-माने गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का निधन 14 नवंबर 2019 को हुआ था. कभी दुनियाभर में अपने नाम का डंका बजवाने वाले और 'वैज्ञानिक जी' के नाम से मशहूर गणितज्ञ ने 74 साल की उम्र में पटना में आखिरी सांस ली थी. उन्हें 40 साल से मानसिक बीमारी सिजोफ्रेनिया था जिसके कारण उन्होंने लगभग अपनी आधी जिंदगी गुमनामी में बिता दी.


गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण जवानी में 'वैज्ञानिक जी' के नाम से मशहूर थे. उन्होंने गणित की दुनिया में इतनी छोटे समय में दो मुकाम हासिल किया है, उसकी सदियों तक मिसालें दी जाती रहेगी. 




बचपन और शिक्षा दीक्षा


गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म साल 1942 के अप्रैल महीने में  बिहार के भोजपुर के एक छोटे गांव बसंतपुर में हुआ था. कहते हैं कि वह बचपन से ही अपने ज्ञान के लिए मशहूर होने लगे थे. उनकी चर्चा प्राथमिक स्कूल में ही होने लगी क्योंकि नारायण सिंह पढ़ने लिखने में काफी अच्छे थे. घरवालों ने उनका दाखिला नेतरहाट स्कूल में करवा दिया, जो उस जमाने का सर्वश्रेष्ठ आवासीय विद्यालय था. वशिष्ठ ने 10वीं यानी मैट्रिक की परीक्षा में पूरे बिहार में टॉप किया था. 


नासा का सफर


बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार पटना कॉलेज में पढ़ाई के दौरान वशिष्ठ नारायण सिंह पर कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नजर पड़ी. उन्होंने उस वक्त ही उनके प्रतिभा को भांप लिया और साल 1965 में उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका ले गए.


जिसके बाद वशिष्ठ नारायण सिंह ने साल 1969 में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की पढ़ाई की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर काम भी किया. उन्होंने कुछ समय के लिए नासा में भी काम किया हालांकि उन्हें विदेश रास नहीं आ रहा था और मन नहीं लगने के कारण साल 1971 में वह भारत लौट आए. यहां उन्होंने आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई और फिर आईएसआई कोलकाता में नौकरी की.


जब फेल हुआ नासा का कंप्यूटर


डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के प्रतिभा को दुनियाभर में पहचान मिलने की एक रोचक कहानी है. कहते हैं जब वह नासा में काम कर रहे थे तब अपोलो की लॉन्चिंग के वक्त 31 कंप्यूटर एक बार कुछ समय के लिए बंद हो गया था. उस वक्त डॉ. वशिष्ठ भी उसी टीम का हिस्सा थे. कंप्यूटर बंद होने के बाद भी उन्होंने अपना कैलकुलेशन जारी रखा और जब कंप्यूटर ठीक हुआ तो उनका और कम्प्यूटर का कैलकुलेशन एक था.  डॉ. सिंह के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी हालांकि नासा की घटना और आइंस्टीन के सिद्धांत को चुनौती देने की बात की पुष्टि ठीक से नहीं की जा सकी है.




शादी के बाद असमान्य व्यवहार का पता चला 


भारत वापस लौटने के बाद साल 1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह हुई. बीबीसी के रिपोर्ट के अनुसार उनकी शादी के बाद ही घरवाले को वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में पता चला. डॉ वशिष्ठ की भाभी कहती हैं कि, "शादी के बाद उनकी आदतों का पता चला जिसमें छोटी छोटी बातों पर गुस्सा हो जाना. कमरा बंद कर दिन-दिन भर पढ़ाई करते रहना और रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था.


उन्होंने कहा कि वशिष्ठ कोई दवाइयां भी खाते थे हालांकि वे किस बीमारी की थी इसके बारे में पता नहीं चल पाया. उनके इस तरफ के व्यवहार से परेशान वंदना ने जल्द ही उनसे तलाक ले लिया. 


शोध को अपने नाम से छपवा लेते थे प्रोफेसर्स 


डॉ वशिष्ठ के भाई अयोध्या सिंह ने बीबीसी से बातचीत में बताया कि उनके भाई के कई प्रोफेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी. उन्हें सबसे पहले साल 1974 में दिल का दौरा पड़ा था.


उनके घरवालों की माने तो अगर उस वक्त ही उन्हें अच्छा इलाज मिल जाता तो शायद उन्हे अपनी जिंदगी के 40 साल गुमानी में नहीं बितानी पड़ती. लेकिन उनका परिवार पहले से ही गरीब था और उन्हें इलाज के लिए सरकार की तरफ से भी कोई मदद नहीं मिल पाई थी. 


लगातार बीमार रहने के बाद उनकी मानसिक स्थिति खराब होने लगी और एक दिन अचानक पुणे से इलाज कराकर लौटते वक्त वे ट्रेन से कहीं उतर गए और लापता हो गये.


कई सालों बाद यानी साल 1993 में वह बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज, सारण में पाए गए. फिर वशिष्ठ नारायण सिंह गांव बसंतपुर लाया गया. तब बिहार के तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह से मिले और उनके इलाज का खर्च सरकारी स्तर पर उठाने की घोषणा की.


हालांकि इलाज के बाद भी वह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाएं और अंत में वे गांव में ही रहने लगे, जहां उनकी मां, भाई अयोध्या सिंह और उनके पुत्र मुकेश सिंह देखरेख करते थे.  


साल 2015 में बीबीसी से बातचीत करते हुए उनकी भाभी प्रभावती कहती भी हैं, "हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है. लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता है. बाक़ी तो यह पागल ख़ुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना दिया."


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