भारत की राजनीति में कई बार ऐसा हुआ है, जब वोट प्रतिशत ज्यादा हो लेकिन झोली में सीटें कम हों. अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के हिस्से में ऐसे नतीजे आते रहे हैं. 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 38.5% वोट शेयर मिला, लेकिन 70 में से सिर्फ 8 सीटें ही जीत पाई. 2023 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 39.52% वोट शेयर मिला लेकिन 200 में से 69 सीटों पर ही जीत मिली. इसमें सबसे बड़ा रोल FPTP का होता है, जो भारत की चुनावी प्रणाली का हिस्सा है. यानी वोट ज्यादा और सीटें कम होने पर भी सरकार बन सकती है, बशर्ते गठबंधन मजबूत हो. अब एक बार फिर बिहार में चुनाव होने को है, जिस वजह से वोट और सीटों के अंतर की बातें भी उठ रही हैं.
तो चलिए ABP एक्सप्लेनर में समझते हैं कि आखिर भारत में वोट और सीट में अंतर क्या है, FPTP कैसे काम करता है और क्या नीतीश-बीजेपी वोट ज्यादा-सीटें कम होने पर सरकार बना पाएंगे...
सवाल 1- भारत में वोट शेयर और सीटों के बीच का अंतर क्या और क्यों होता है?
जवाब- भारत में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट यानी FPTP चुनावी प्रणाली लागू है, जिसे हिंदी में 'पहला जीतने वाला' या 'सबसे ज्यादा वोट पाने वाला' सिस्टम भी कहा जाता है. यह भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इस्तेामल होने वाली प्रणाली है. इसके तहत हर एक निर्वाचन क्षेत्र में सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार जीतता है.
इस सिस्टम में वोटों का क्षेत्रीय वितरण और एकाग्रता सीटों को तय करती है, न कि कुल वोट शेयर. अगर किसी पार्टी के वोट पूरे देश या राज्य में बिखरे हुए हैं, तो वह कम सीटें जीतती है, भले ही उसका कुल वोट शेयर ज्यादा हो. इसके उलट अगर वोट कुछ क्षेत्रों में केंद्रित हैं, तो सीटें ज्यादा मिल सकती हैं.
उदाहरण से समझें- 2014 लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी यानी BSP को उत्तर प्रदेश में 19.4% वोट मिले, जो राष्ट्रीय स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा वोट शेयर था. लेकिन यह वोट उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में बिखरे थे, जिस वजह से BSP को एक भी सीट नहीं मिली. दूसरी ओर बीजेपी को यूपी में 43.35% वोटों से 73 सीटें मिलीं.
सवाल 2- कैसे FPTP सिस्टम वोट और सीट में अंतर पैदा करता है?
जवाब- FPTP के 4 बड़े कारण इस अंतर को पैदा करते हैं...
- विजेता सब ले जाता है: हर एक सीट पर सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार जीतता है, भले ही उसे 30% वोट मिले और बाकी 70% वोट कई उम्मीदवारों में बंट जाए.
- वोट बिखराव: अगर किसी पार्टी के वोट कई क्षेत्रों में फैले हैं, लेकिन किसी भी सीट पर बहुमत नहीं बनता, तो वह सीटें हार जाती है. 2014 में BSP कई सीटों पर दूसरे स्थान पर थी, लेकिन जीत नहीं पाई.
- क्षेत्रीय एकाग्रता: जिन दलों के वोट कुछ राज्यों या क्षेत्रों में केंद्रित होते हैं, वे कम वोट शेयर के बावजूद ज्यादा सीटें जीत सकते हैं. 2014 में TMC को सिर्फ 3.8% (राष्ट्रीय स्तर पर) वोट मिले, लेकिन पश्चिम बंगाल में एकाग्रता की वजह से 34 सीटें जीतीं.
- गठबंधन का असर: गठबंधन वोटों को एकजुट करते हैं, जिससे स्ट्राइक रेट बढ़ती है. 2024 में इंडिया गठबंधन ने यह रणनीति अपनाकर बीजेपी को कड़ी टक्कर दी.
सवाल 3- क्या कोई ऐतिहासिक उदाहरण हैं, जहां वोट ज्यादा मिले लेकिन सीटें कम रहीं?
जवाब- हां. भारत के राष्ट्रीय और राज्य चुनावों में कई ऐसे उदाहरण हैं, जहां वोट शेयर ज्यादा होने पर भी सीटें कम आई हैं...
- 2024 लोकसभा चुनाव- बीजेपी
- वोट शेयर: 36.5% (NDA समेत 43% वोट शेयर)
- सीटें: 240 (NDA समेत 293)
- वजह: बीजेपी का वोट शेयर 2019 के 37.4% और 303 सीटों के मुकाबले थोड़ा कम था, लेकिन विपक्षी इंडिया गठबंधन के 41% वोट और 234 सीटों ने वोटों को एकजुट कर बीजेपी की स्ट्राइक रेट को कम कर दिया. बीजेपी के वोट कई राज्यों में बिखरे, जिससे सीटें घटीं. हालांकि, सरकार बनाने में कामयाब रही.
- 2022 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव- समाजवादी पार्टी (SP)
- वोट शेयर: 32.1%
- सीटें: 111 (कुल सीटें 403 में से)
- वजह: SP का वोट शेयर 2017 के 21.8% से बढ़ा, लेकिन बीजेपी के 41.3% वोट और 255 सीटों ने ज्यादा केंद्रित वोट बेस और बेहतर स्ट्राइक रेट की वजह से ज्यादा सीटें जीतीं। SP के वोट कई क्षेत्रों में बिखर गए थे.
- 2015 बिहार विधानसभा चुनाव- बीजेपी
- वोट शेयर: 24.4%
- सीटें: 243 में से 53 सीटें
- वजह: 2013 में नीतीश कुमार बीजेपी से अलग हुए और 2015 में JD(U), RJD और कांग्रेस के महागठबंधन ने बीजेपी को हराया. बीजेपी का ज्यादा वोट शेयर बिखरा, जबकि महागठबंधन के वोट केंद्रित थे. JD(U) को 16.8% वोट से 71 सीटें मिलीं.
इसी तरह 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में RJD को 23.1% वोट मिले, जो सबसे ज्यादा थे, लेकिन 243 में से सिर्फ 75 सीटें ही मिलीं, क्योंकि वोट यादव-मुस्लिम बेल्ट में केंद्रित थे, जिससे वोट बिखराव हुआ और RJD कई सीटें हार गई.
सवाल 4- तो क्या बिहार में SIR के बाद वोट और सीट का अंतर बदल जाएगा?
जवाब- 24 जून से 26 जुलाई तक बिहार में स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन यानी SIR के तहत वोटर लिस्ट की समीक्षा की गई. शुरू में बिहार में 7.89 करोड़ वोटर्स थे. 1 अगस्त को ड्राफ्ट रोल जारी हुआ, जिसमें करीब 65 लाख नाम कटे यानी 7.24 करोड़ वोटर्स बचे. 30 सितंबर को फाइनल लिस्ट जारी हुई, जिसमें दावों और आपत्तियों के बाद 47 लाख नाम कटे और 21.53 लाख नए जोड़े गए. यानी अब बिहार में कुल 7.42 करोड़ वोटर्स बचे.
अब अगर इन 47 लाख वोटर्स को कुल 243 सीटों में बराबर बांटा जाए, तो हर एक सीट पर करीब 19 हजार वोटर्स कम हुए. हालांकि, यह सिर्फ अनुमान है, क्योंकि जिलेवार वोटर्स बढ़े भी हैं और कम भी हुए हैं. तो अब देखने में तो 19 हजार वोटर्स का आंकड़ा बहुत कम लगता है, लेकिन इतने अंतर से कई सीटों के नतीजे बदले हैं.
2020 बिहार विधानसभा चुनाव में कई सीटें ऐसी थीं, जहां जीत-हार का फासला 18 हजार से 20 हजार वोटों के आसपास था. इन सीटों पर थोड़े वोट ज्यादा या कम होने से रिजल्ट पलट सकता था. इनमें तीन बड़ी सीटें हैं, जो NDA को मिलीं, जिस वजह से उनका बहुमत मजबूत हुआ. अगर ये RJD को मिल जातीं, तो महागठबंधन के पास 113 सीटें होतीं, फिर सरकार बनाने का खेल बदल जाता…
- वाल्मीकिनगर सीट: यहां बीजेपी के राम सिंह ने कांग्रेस के कृष्णा प्रसाद को 18,941 वोटों से हराया. यहां कुल 1.5 लाख वोट पड़े. NDA को यहां ऊपरी जातियों का मजबूत वोट मिला. अगर थोड़े वोट शिफ्ट होते, तो महागठबंधन जीत जाता.
- चैनपुर सीट: JD(U) के जदुराम ने RJD के विजय कुमार को 19,121 वोटों से हराया था. यहां कुल 1.8 लाख वोट पड़े थे. EBC वर्ग ने नीतीश को वोट दिया और RJD का यादव-मुस्लिम बेल्ट यहां कमजोर पड़ा.
- सुल्तानगंज सीट: JD(U) के रामचंद्र मंडल ने RJD के अनुज सिंह को 19,456 वोटों से हराया था. कुल वोट 1.7 लाख पड़े. यहां ग्रामीण इलाके में विकास के मुद्दे पर NDA आगे रही, अगर 19 हजार वोट RJD को मिलते, तो यह सीट उनके पास होती.
सवाल 5- बिहार में SIR सिस्टम वोट-सीट के अंतर को कैसे प्रभावित करेगा?
जवाब- SIR से वोट-सीट अंतर बढ़ सकता है, क्योंकि FPTP में पहले से ही वोट बिखराव बड़ा मुद्दा है...
- वोट शेयर पर असर: बिहार में कुल 6% वोटर्स कम हुए, जिससे मतदान प्रतिशत बढ़ सकता है, लेकिन RJD का मुस्लिम-यादव का 31% वोट बैंक खासतौर पर सीमांचल और किशनगंज जैसे इलाकों में प्रभावित हो सकता है. गलत कटौती से वास्तविक वोटर्स कम हो जाएंगे.
- सीटों पर प्रभाव: अगर RJD के 10% वोटर प्रभावित हुए, तो स्ट्राइक रेट गिरेगी, जिससे वोट तो ज्यादा होंगे लेकिन सीटें कम हो जाएंगी. जैसे 2020 में 23.1% वोट शेयर के साथ भी सिर्फ 75 सीटें मिली थीं.
- जातिगत/क्षेत्रीय बिखराव: SIR से माइग्रेंट वोटर बाहर हो सकते हैं, जो RJD को हिट करेगा. NDA को फायदा होगा, क्योंकि बीजेपी का 'घुसपैठिए हटाओ' नैरेटिव मजबूत होगा.
- गठबंधन की भूमिका: NDA में दोनों पार्टियों का वोट एकजुट रहेगा, जबकि RJD को नुकसान होने की संभावना है.
- कुल बदलाव: FPTP की वजह से अंतर पहले से मौजूद है, लेकिन SIR से विपक्ष का नुकसान बढ़ेगा. वोट प्रतिशत ज्यादा रहने पर भी सीटें सीमित रहेंगी.
FPTP बिहार में वोटों का क्षेत्रीय और जातिगत बिखराव बढ़ाता है, जिससे NDA गठबंधन को फायदा होता है. 243 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 122 सीटें चाहिए. महागठबंधन को 37-40% वोट मिलने के कयास हैं, लेकिन यादव और मुस्लिम बेल्ट में यह वोट बिखरे, तो सीटें 81-103 रह सकती हैं. वहीं, NDA 41-45% वोट प्रतिशत के साथ EBC और ऊपरी जाति वोट एकजुट रखती है, तो 131-150 सीटें जीत सकता है. हालांकि, यह सटीक आंकड़े नहीं हैं, क्योंकि महिला वोटबैंक नतीजे पलटने का दम रखता है.
ECI का दावा है कि SIR से 98.2% सत्यापन हुआ, लेकिन विपक्ष इसे वोट चोरी बता रहा है. एक्सपर्ट्स के मुताबिक, इससे FPTP में वोट बिखराव बढ़ सकता है क्योंकि अगर गलत नाम हटने से RJD के वोट बैंक को फायदा होता है, तो NDA सरकार बन सकती है.
सवाल 6- अगर वोट प्रतिशत ज्यादा और सीटें कम होती हैं, तो क्या NDA जीत पाएगी?
जवाब- एक्सपर्ट्स के मुताबिक, ऐसा होना मुमकिन है और 2025 के प्रोजेक्शन से NDA को फायदा मिल सकता है. अगर महागठबंधन को 37-40% वोट प्रतिशत मिलता है, लेकिन वोट बिखराव से सीटें 81-103 रहती हैं, तो NDA के 41-45% वोट से 131-150 सीटें मुमकिन हैं. नीतीश की पार्टी को EBC की 31% आबादी से मजबूत समर्थन है. बीजेपी की ऊपरी जातियों के 15% वोट प्रतिशत से स्ट्राइक रेट बढ़ेगा.
आसान भाषा में समझें- मान लीजिए बीजेपी और JD(U) का अलग-अलग वोट प्रतिशत ज्यादा है, लेकिन सीटें कम हैं. तो भी NDA की सरकार बन जाएगी, क्योंकि दोनों पार्टी एक ही गठबंधन की हैं. तभी NDA की सरकार बनना मुमकिन होगा. भारत में ज्यादा सीटें जीतना मायने रखता है, न कि ज्यादा वोट.