31 जनवरी 1990... मुजफ्फरपुर के छाता चौक में शाम करीब 5 बजे सरस्वती पूजा का त्योहार चल रहा था. बाजार में मां सरस्वती की मूर्तियां बिक रहीं थीं और बच्चे किताबें पूज रहे थे. तभी 45 साल का दबंग नेता चंदेश्वर सिंह अपने 10-12 लोगों के काफिले के साथ एक चाय की टपरी पर रुका. इस दौरान बाहुबली अशोक सम्राट की गैंग आ पहुंची. अशोक के हाथ में सोवियत सेना से चोरी होकर भारत पहुंची AK-47 राइफल थी. अचानक दोनों गुटों में फायरिंग शुरू हो गई. "ट्र-ट्र-ट्र" की आवाज से बाजार गूंज उठा और बिहार में पहली बार AK-47 चली. चंदेश्वर को 12 गोलियां लगीं और उसकी मौत हो गई. यह हमला चुनावी रंजिश से जुड़ा था क्योंकि चंदेश्वर जनता दल के टिकट पर मुजफ्फरपुर सदर से चुनाव लड़ रहा था और अशोक उनके वोट बैंक को तोड़ना चाहता था.
ऐसा ही कुछ बिहार में फिर दोहराया जा रहा है. 30 अक्टूबर को मोकामा में जनसुराज के कैंडिडेट पीयूष प्रियदर्शी के काफिले पर हमला हुआ. इसमें राजद नेता दुलारचंद यादव की गोली मारकर हत्या कर दी. इससे पहले आरा और गया में भी गोलियां चलीं. यानी अब बिहार में फिर से बाहुबल और जंगलराज पैर पसारने लगा है. इतना ही नहीं, इस बार चुनाव में कई बाहुबलियों को टिकट भी मिले हैं.
तो आइए ABP एक्सप्लेनर में समझते हैं कि बिहार की राजनीति में गोलियों का रिवाज क्या, कैसे बाहुबल का दौर वापस लौट रहा और इस बार कौन से बाहुबली चुनाव लड़ रहे...
सवाल 1- बिहार में 'जंगलराज' क्या था और ये 1990 के दशक में कैसे शुरू हुआ?जवाब- 'जंगलराज' शब्द बिहार की राजनीति का एक काला अध्याय है, जो कानून की बजाय बंदूक और बाहुबलियों के राज को दिखाता है. ये शब्द पहली बार 5 अगस्त 1997 को पटना हाईकोर्ट ने इस्तेमाल किया था, जब कोर्ट ने राज्य की खराब सड़कों, बाढ़ और गंदगी पर टिप्पणी करते हुए कहा,'ये जंगलराज जैसा हो गया है।' लेकिन असल में ये शब्द लालू प्रसाद यादव के 1990-2005 के राज (रबड़ी देवी सहित) के दौरान अपराधों की बाढ़ से जुड़ गया. लालू यादव 10 मार्च 1990 को बिहार के मुख्यमंत्री बने, जब जनता दल ने 122 सीटें जीतीं थीं. शुरू में ये मंडल कमीशन की लहर थी, लेकिन जल्दी ही राजनीति और अपराध का गठजोड़ बन गया.
NCRB के आंकड़ों के मुताबिक, 1990 में बिहार में 3,900 हत्याएं हुईं, जो 1985 के 69 चुनावी मौतों से बढ़कर 1990 में 67 हो गईं. अपहरणों का आंकड़ा 1,500-2,000 सालाना पहुंच गया. ज्यादातर व्यापारियों, डॉक्टरों और छात्रों को निशाना बनाया जाता था. 1998 में अकेले 1,834 अपहरण दर्ज हुए. सालाना दंगे 9,000 से ज्यादा हुए. ये दौर जातिगत गैंगवार का था. ऊपरी जातियां (भूमिहार, राजपूत) बनाम पिछड़ी जातियां (यादव). बाहुबली जैसे मोहम्मद शहाबुद्दीन और पप्पू यादव ने इलाकों पर कब्जा कर लिया. उस दौर में विधायक खुद अपहरण कराते और पुलिस FIR तक दर्ज नहीं करती थी.
सवाल 2- 1990-2005 के बाहुबलियों ने चुनावों में क्या-क्या हुड़दंग मचाया?जवाब- बाहुबली बिहार की राजनीति के हीरो और विलेन दोनों थे. ये वो लोग थे जो अपराध से सत्ता में आए और सत्ता से अपराध को ढाल बनाया. चुनाव आते ही इनके गैंग बूथ लूटते, वोटरों को धमकाते और हत्याएं कराते थे. विधायकों को उठवाना इनका पेशा था यानी विरोधी विधायकों को अगवा कर असेंबली भंग कर देना. NCRB, CBI रिपोर्ट्स और कोर्ट जजमेंट्स पर आधारित रिपोर्ट्स के मुताबिक,
- मोहम्मद शहाबुद्दीन (सिवान के 'साहेब'): 1967 में जन्मा शहाबुद्दीन 1996-2009 तक राजद के चार बार सांसद बना. वे लालू का दाहिना हाथ था. उसने 1998 में सिवान के डीएसपी संजीव कुमार को थप्पड़ मारा, क्योंकि वो शहाब के गुर्गे मनोज पांडे को गिरफ्तार करने गए थे. 1999 में CPI(ML) नेता छोटन शुक्ला की हत्या में नाम आया. लेकिन सबसे कुख्यात जुर्म 3 जून 1999 को हुआ, जब सिवान के लालू तिवारी और उनके दो बेटों पर एसिड फेंका गया. CBI ने 2003 में चार्जशीट की और 2007 में लाइफ इम्प्रिजनमेंट मिली. शहाब ने सिवान में कंगारू कोर्ट चलाए यानी दाम तय करना और दुश्मनों को सजा देना. 2016 में जेल में उसकी मौत हो गई. शहाबुद्दीन का बेटा ओसामा शहाब 2025 में RJD से रघुनाथपुर से लड़ रहा है.
- पप्पू यादव: 1967 में मधेपुरा जिले के कटिहार में जन्में पप्पू ने 1990 के दशक में कोसी क्षेत्र के राजपूतों के खिलाफ यादव गैंग चलाया. 1991 में मंडल विरोधी प्रदर्शनों में आनंद मोहन के साथ थे और चुनावों में बूथ कैप्चरिंग कराई. 1998 में CPI नेता अजीत सरकार की हत्या के आरोप में जेल गए और 2013 में बरी हुए. पप्पू यादव पर 26 आपराधिक केस दर्ज हैं, जिनमें हत्या से अपहरण तक के मामले हैं.
- आनंद मोहन सिंह (राजपूत बाहुबली सहरसा के): 1991 में लालू और मंडल कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित किए. 16 मार्च 1994 को गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया की लिंचिंग की. छोटन शुक्ला के अंतिम संस्कार में भीड़ को भड़काया, तो भीड़ ने डीएम को पीट-पीटकर मार डाला. 1996 में शौहर लोकसभा जीती. CBI ने 2007 में लाइफ सेंटेंस दी. आनंद पर 47 केस दर्ज, जिसमें हत्या और अपहरण शामिल है. 2023 में नीतीश सरकार ने जेल नियम बदले, तो आनंद रिहा हो गया.
- अशोक सम्राट (भूमिहार डॉन): 1990 में मुजफ्फरपुर में चंदेश्वर सिंह के काफिले पर AK-47 से हमला किया, जिसमें 10 मौतें हुई. अशोक रिफाइनरी रंगदारी वसूली के जाना जाता था. 5 जनवरी 1995 को बारानी एनकाउंटर में पुलिस ने मार गिराया. लालू राज में ये पहला बड़ा एक्शन था.
- बृज बिहारी प्रसाद: चंपारण-मुजफ्फरपुर का बनिया बाहुबली, जो राजद सरकार में मंत्री बना. 1994 में छोटन शुक्ला की हत्या कराई. बदले में 13 जून 1998 को IGIMS अस्पताल, पटना में श्रीप्रकाश शुक्ला ने AK-47 से गोली मार दी. 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने मुन्ना शुक्ला को उम्रकैद दी.
- दुलारचंद यादव: मोकामा के बाहुबली कहे जाने वाले दुलारचंद की 30 अक्टूबर 2025 को गोली मारकर हत्या कर दी. वे लालू के सहयोगी रहे, लेकिन अनंत सिंह के खिलाफ थे. 1990 के चुनाव में अनंत के भाई दिलीप सिंह से हार गए थे. ये हत्या 2025 चुनावों की पहली बड़ी घटना बनी.
- अनंत सिंह (छोटे सरकार): मोकामा का धानुक बाहुबली कहे जाने वाला अनंत 1990 के दशक से सक्रिय है और भाई दिलीप के साथ बूथ लूटाई करता है. अनंत पर 28 आपराधिक केस दर्ज हैं, जिनमें हत्या और हथियार तस्करी भी शामिल है. 2022 में AK-47 केस में 10 साल की सजा हो चुकी है. अब दुलारचंद हत्याकांड में आरोपी भी है.
- सूरजभान सिंह (भूमिहार बाहुबली): 1980 के दशक में अनंत के भाई दिलीप के साथ काम किया लेकिन फिर दुश्मन बन गए. 2000 में इंडिपेंडेंट चुनाव लड़कर दिलीप को हराया. सूरजभान पर हत्या और अपहरण मिलाकर 26 केस दर्ज हैं. 2009 में सूरजभान 1998 के बृज बिहारी हत्याकांड में दोषी साबित हुआ लेकिन 2014 में हाईकोर्ट से बरी हो गया. ये बाहुबली चुनावों में विधायकों को उठवाता था. 2000 के हंग असेंबली में सूरजभान ने विरोधी विधायकों को किडनैप करवाया था.
सवाल 3- 2005 के बाद नीतीश कुमार ने बाहुबलियों को कैसे रोका?जवाब- 2005 में NDA के साथ मिलकर नीतीश कुमार सत्ता में आए. उन्होंने 'सुशासन' का वादा किया. जेल में 1 लाख अपराधी भेजे. नीतीश के दौर में अपराध 60% तक गिर गया. NCRB के अनुसार, 2005 में 3,400 हत्याएं थीं, जो 2010 में घटकर 2,800 रहीं. शहाबुद्दीन, आनंद मोहन, प्रभुनाथ सिंह जेल गए. हालांकि, 2020-2025 में अपराध फिर बढ़ा. NCRB की 2020 की रिपोर्ट में 445.9 प्रति लाख आबादी क्राइम रेट पहुंच गया और हिंसक अपराध बढ़े. 2024 में बिहार में 3.52 लाख केस दर्ज हुए.
सवाल 4- बिहार चुनाव 2025 में पार्टियों ने किन बाहुबलियों को टिकट दिया और क्यों?जवाब- 2025 में पार्टियां बाहुबलियों को सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर टिकट दे रही हैं...
- जदयू 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. पार्टी ने 20-25% दागी उम्मीदवारों को टिकट दिया है. 3 मुख्य बाहुबली हैं. अनंत सिंह, अमरेंद्र कुमार पांडे उर्फ पप्पू पांडे और मनोरंजन प्रसाद सिंह उर्फ धूमल सिंह. पार्टी ने मसल पावर के लिए धानुक-मुसहर जैसे वोट बैंक पर फोकस किया है.
- राजद ने 70% दागी को टिकट दिया. लालू-तेजस्वी ने जंगलराज छवि के बावजूद परिवारवाद और बाहुबली विरासत पर जोर दिया. 60% उम्मीदवारों पर गंभीर मामले दर्ज हैं. इनमें खुद तेजस्वी यादव भी शामिल हैं. इनके अलावा वीणा देवी, बीमा भारती, रितलाल यादव, ओसामा शहाब, करनवीर सिंह उर्फ लल्लू मुखिया, बोगो सिंह और अन्नू शुक्ला जैसे नाम शामिल हैं.
- बीजेपी की लिस्ट में 56% दागी हैं, जिनमें विजय कुमार सिन्हा, अरुणा देवी, राम कृपाल यादव, सुनील कुमार और विशाल प्रशांत जैसे नाम शामिल हैं.
- LJP (रामविलास) ने 10 से 15 बाहुबलियों को टिकट दिया, जिनमें हुलास पांडे और राजीव संजन उर्फ सोनू सिंह जैसे नाम शामिल हैं. इन पर अपहरण से लेकर हत्या के केस दर्ज हैं.
- इसके अलावा HAM ने आलोक सिंह, RLM ने उपेंद्र कुशवाहा की पत्नी स्नेहलता और निर्दलीय पप्पू यादव भी प्रत्याशी हैं.
इन बाहुबलियों को टिकट देना 'प्रैक्टिकल चॉइस' बन गया है. ADR और बिहार इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट्स के मुताबिक, पार्टियां बाहुबलियों को इसलिए चुनती हैं क्योंकि ये 'विनिंग फैक्टर' लाते हैं...
1. मसल पॉवर और बूथ मैनेजमेंट: बाहुबली चुनावी हिंसा, बूथ कैप्चरिंग और वोटरों को धमकाने में माहिर होते हैं. 14 अक्टूबर को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पटना में कहा, 'बिहार चुनाव की हकीकत को ध्यान में रखना पड़ता है. उम्मीदवार की जीतने की क्षमता टिकट बांटने का मुख्य फैक्टर है.'
2. जातिगत वोट बैंक का कंट्रोल: बिहार में 2023 के जाति सर्वे के बाद वोट बैंक की जंग तेज है. बाहुबली अपनी जाति के 80-90% वोट ला सकते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, बाहुबली अब बेटे-बहू को चुनाव लड़वा रहे हैं, क्योंकि जातिगत वोट बैंक बचाना जरूरी है. अनंत सिंह मोकामा में जदयू के लिए धानुक वोटों को एकजुट कर रहे हैं.
3. परिवारवादी राजनीति और विरासत बचाना: बाहुबली खुद चुनाव न लड़ सकें, तो परिवार को टिकट मिलता है. डायनेस्टी पॉलिटिक्स बिहार में हावी है. पार्टियां विरोध करने के बावजूद परिवारों को टिकट दे रही हैं. राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं, 'यह बिहार की राजनीति का अभिशाप है. पार्टियां नेपोटिज्म को जीत का हथियार बना रही हैं.'
4. चुनावी तनाव और विनर-टेक्स-ऑल: 243 सीटों पर NDA और महागठबंधन की सीधी टक्कर है. ऐसे में पार्टियां जोखिम नहीं लेना चाहतीं. 2000 में नीतीश को जेल से बाहुबली विधायकों सूरजभान सिंह और सुनील पांडे का सपोर्ट मिला, जो अब भी प्रासंगिक है. पार्टियां जानती हैं कि बिना मसल पॉवर के बिहार में वोटरों को संभालना मुश्किल है. लेकिन यह लोकतंत्र के लिए खतरा है.
सवाल 5- तो क्या 1990 जैसा जंगलराज फिर लौट गया है?जवाब- हां. इसके संकेत मिल रहे हैं. 30 अक्टूबर को आरा प्रमोद कुशवाहा और उनके बेटे प्रियांशु कुशवाहा की गोली मारकर हत्या कर दी. प्रमोद कुशवाहा मिठाई दुकानदार थे. इसके अलावा वे राष्ट्रीय लोक मोर्चा पार्टी के कार्यकर्ता भी थे. इस हत्याकांड को चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है.
30 अक्टूबर को मोकामा में दुलारचंद हत्याकांड हुआ और अनंत सिंह पर हत्या के आरोप लगे. इससे पहले 29 अक्टूबर को गयाजी के टिकारी में जीनराम मांझी की HAM पार्टी के कैंडिडेट डॉ. अनिल कुमार सिंह पर हमला हुआ, जिसमें उनका हाथ टूट गया. वे अपने विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए गए थे. इसी दौरान अनिल सिंह पर गांव के लोगों ने पथराव कर दिया. उन्होंने बयान देते हुए कहा, 'मेरी हत्या की साजिश रची गई थी, मैं समय से पहले वहां से नहीं हटता तो मेरी हत्या कर दी जाती. मेरे साथ गए कई लोग घायल हुए हैं. हमलावरों में करीब 50 लोग थे, लेकिन थोड़ी ही देर में 500 लोग आ गए.'
इसी दिन सारण में तेज प्रताप यादव के काफिले पर पथराव हुआ. वैशाली के महनार विधानसभा क्षेत्र में तेज प्रताप को भारी विरोध और फजीहत का सामना करना पड़ा. उनके अपने ही पार्टी के समर्थकों ने उनके काफिले का जमकर विरोध किया, 'तेजस्वी यादव जिंदाबाद' और 'लालटेन छाप जिंदाबाद' के नारे लगाए तथा पत्थरबाजी तक की.
पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स मुताबिक, बिहार में चुनाव के दौरान हत्याएं और बाहुबल बहुत बढ़ जाता है. ऐसा ही कुछ नजारा इस बार भी देखने को मिल रहा है. अभी चुनाव होने में करीब 2 हफ्ते का समय बचा है. तब तक प्रशासन को चाहिए कि सख्ती बढ़ाए. वरना बिहार में लोकतंत्र की इसी तरह धज्जियां उड़ती रहेंगी.