25 नवंबर 2025 को नीतीश कुमार की नई सरकार की पहली कैबिनेट बैठक हुई. इसमें बिहार की सबसे पुरानी चनपटिया चीनी मिल को दोबारा शुरू करने का फैसला हुआ. यानी चीनी मिल्स शुरू होने की आस फिर जगी. हालांकि, यह अनोखी बात नहीं है, क्योंकि बीते 73 सालों में कई सरकारों ने ऐसे ही फैसले और वादे किए. जो आज तक पूरे नहीं हुए. कभी बिहार की लाइफलाइन कहे जाने वाली चीनी मिलें, आज इतिहास के पन्नों में सिमट गई हैं. ABP एक्सप्लेनर में समझते हैं कि बिहार की चीनी मिलों का इतिहास क्या, कैसे देश का सबसे ज्यादा चीनी मिलों वाले राज्य में पतन हुआ और मौजूदा हालात क्या हैं...

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सवाल 1- बिहार में चीनी मिल्स की इतिहास क्या रहा है?जवाब- बिहार का चीनी उद्योग एक समय देश के प्रमुख कृषि-आधारित उद्योगों में से एक था, जो ब्रिटिश काल से विकसित हुआ. गंगा की उपजाऊ मैदानों और उपयुक्त जलवायु की वजह से उत्तर बिहार (जैसे चंपारण, सारण, दरभंगा, मुजफ्फरपुर) में गन्ना की खेती जमकर हुई, जिससे चीनी मिलों का जन्म हुआ.

यह उद्योग न सिर्फ आर्थिक विकास का प्रतीक था, बल्कि लाखों किसानों और मजदूरों को रोजगार भी देता था. हालांकि, नीतिगत असफलताओं, निर्यात प्रतिबंधों और सरकारी दखल की वजह से यह उद्योग 1980-90 के दशक में पतन की ओर बढ़ा. आज बिहार चीनी उत्पादन में देश का सिर्फ 4-6% योगदान देता है, जबकि कभी यह 30-40% तक था.

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सवाल 2- चीनी मिल्स का उदय और पतन कैसे हुआ?जवाब- इसे स्टेप बाय स्टेप समझते हैं...

  • गन्ना खेती का उदय: 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन में चीनी की मांग बढ़ी. ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1792 में भारत भेजे गए एक प्रतिनिधिमंडल के जरिए बिहार के गंगेटिक मैदानों में गन्ना उत्पादन की जगहें तलाशीं. इससे नील की खेती से गन्ने की ओर रुख हुआ.
  • पहली मिल की स्थापना: बिहार समेत पूरे भारत की पहली आधुनिक चीनी मिल 1904 में सारण जिले के मढ़ौरा में कानपुर शुगर वर्क्स ने स्थापित की. यह वैक्यूम-पैन प्रोसेस वाली पहली मिल थी, जो ब्रिटिश बाजार के लिए चीनी उत्पादन करती थी. इससे पहले 1820 में चंपारण के बराह एस्टेट में एक छोटी रिफाइनरी मिल बनी थी, लेकिन यह आधुनिक नहीं मानी जाती.
  • 1930 के दशक में विस्तार का दौर: 1935 में बिहार की ब्रिटिश सरकार ने गन्ना विभाग की स्थापना की. इसके ज्यादातर मिलें स्थापित होने लगीं. 1937 में 21 देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय समझौते से भारत को 5 सालों के लिए चीनी निर्यात प्रतिबंधित कर दिया गया, जिससे ज्यादा उत्पादन और मिलों पर दबाव पड़ा.
  • आजादी के बाद का दौर: 1947 तक बिहार में 33 चीनी मिलें थीं, जो देश के कुल उत्पादन का 40% योगदान देती थीं. प्रमुख मिलें 1914-1930 के बीच स्थापित हुईं, जिनमें लोहाट शुगर मिल, रैयाम शुगर मिल, लौरिया शुगर मिल, सीवान शुगर फैक्ट्री, समस्तीपुर शुगर मिल, हरिनगर शुगर मिल, हसनपुर शुगर मिल, रीगा शुगर मिल, मोतिपुर शुगर मिल और सकती शुगर मिल शामिल हैं. 1950-60 तक बिहार चीनी उत्पादन में नंबर वन पर था. मिलें न सिर्फ चीनी, बल्कि, शराब, बिजली और बायो-कंपोस्ट भी उत्पादित करती थीं.
  • पतन का दौर: 1966-67 तक ज्यादातर मिलें प्राइवेट कंपनियों के हाथों में आ गईं. 1972 में केंद्र सरकार ने चीनी निगरानी समिति गठित की, जिसकी रिपोर्ट पर बिहार सरकार ने 1977-1985 के बीच 15 से जयादा मिलों का अधिग्रहण किया. 1974 में बिहार स्टेट शुगर कॉर्पोरेशन की स्थापना हुई, लेकिन पुरानी मशीनरी, कम प्रोडक्शन और चीनी की गिरती कीमतों से नुकसान बढ़ा.
  • बंद होने की कगार: 1980 के दशक में 28 कार्यरत मिलें थीं, लेकिन 1990 तक ज्यादातर बंद हो गईं. इसकी वजह पुरानी तकनीक, किसानों को समय पर पेमेंट न देना  और राजनीतिक फायदे शामिल थे. राज्य में सकरी (1993), रैयाम (1994), वारिसलीगंज (1993) और मोतिपुर (2011) जैसी मिलें बंद हो गईं. नतीजतन, 4 लाख किसानों ने गन्ना छोड़ दिया और 7 हजार से ज्यादा मजदूर बेरोजगार हो गए, जिससे प्रवासन बढ़ गया.

बिहार में कभी 33 चीनी मिलें थीं, जो अब 9-11 बची हैं.

सवाल 3- बीते 73 सालों में बिहार की कई सरकारों ने चीनी मिल्स के वादे किए, पूरे क्यों नहीं हुए?जवाब- बिहार के चीनी उद्योग का इतिहास 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनावों से जुड़ा हुआ है, जब राज्य में स्वतंत्रता के बाद औद्योगिक विकास की शुरुआत हुई. 1952 में कांग्रेस सरकार ने वारिसलीगंज चीनी मिल की स्थापना की थी, जो गन्ना किसानों के लिए एक बड़ा कदम था. लेकिन 1960-70 के दशक से मिलें बंद होने लगीं और अलग-अलग सरकारों ने इन्हें दोबारा शुरू करने के वादे किए. ये वादे चुनावी अभियानों, घोषणापत्रों, रैलियों और सरकारी बैठकों में किए गए, लेकिन आज तक पूरे नहीं हुए...

1. कांग्रेस सरकार (1952-1977): स्थापना से संकट तक

  • 1952 के चुनावों के बाद श्रीकृष्ण सिंह की कांग्रेस सरकार ने चीनी उद्योग को बढ़ावा दिया, लेकिन 1960 के दशक से निर्यात प्रतिबंधों और सरकारी दखल से मिलें प्रभावित हुईं. मार्च 1952 में पूर्व सीएम श्रीकृष्ण ने पहली कैबिनेट बैठक में कहा था, 'बिहार के गंगेटिक मैदानों में गन्ना उत्पादन बढ़ाकर चीनी मिलों का नेटवर्क विकसित किया जाएगा, जहां 5-वर्षीय योजना के तहत औद्योगिक विकास पर जोर दिया जाएगा.' लेकिन हकीकत इससे दूर रही. 1993 में वारिसलीगंज मिल भी बंद हो गई.
  • 1967 में पूर्व सीएम महामाय प्रसाद सिन्हा ने मिल्स को लेकर वादा किया था, 'बंद पड़ रही मिलों को दोबारा शुरू करने के लिए केंद्र से मदद ली जाएगी, गन्ना किसानों को न्यूयनतम समर्थन मूल्य मिलेगा.' यह 1967 के घोषणापत्र का हिस्सा था, जहां 21 मिलों के संरक्षण का वादा किया गया. 1967 के बाद मिलें बढ़ीं, लेकिन चीनी की कीमतों में गिरावट की वजह से 1970 तक 10 से ज्यादा मिलें बंद हो गईं.

2. जनता पार्टी और अन्य सरकारें (1977-1990): अधिग्रहण का दौर

  • 1977 के चुनावों में जनता पार्टी ने सत्ता संभाली और चीनी निगरानी समिति की सिफारिश पर मिलों का अधिग्रहण शुरू हुआ. वादे दोबारा शुरू करने के थे, लेकिन इससे घाटा बढ़ा. जून 1977 में पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर ने कहा था, '15 से ज्यादा प्राइवेट मिलों का सरकारी अधिग्रहण कर दोबारा शुरू किया जाएगा, किसानों को समय पर पेमेंट मिलेगी और रोजगार बढ़ेगा.' 1977-1985 तक समस्तीपुर और रैयाम जैसी 15 मिलों का अधिग्रहण हुआ, लेकिन सभी घाटे में रहीं. 1990 तक ज्यादातर बंद हो गईं.
  • मार्च 1980 में मुजफ्फरपुर में पूर्व सीएम राम सुंदर दास ने कहा था, 'बंद मिलों को आधुनिक बनाकर चीनी निर्यात बढ़ाया जाएगा, जिससे 1 लाख किसानों को फायदा होगा.' 1980 के दशक में 28 मिलें कार्यरत थीं, लेकिन 1990 तक 20 बंद हो गईं क्योंकि वैश्विक बाजार का दबाव बढ़ गया था.

3. लालू प्रसाद यादव की राजद सरकार (1990-2005): जंगल राज काल

  • फरवरी 1990 को पटना में पूर्व सीएम लालू प्रसाद यादव ने बयान दिया, 'सभी 28 मिलों का सरकारीकरण कर दोबारा शुरू किया जाएगा, किसानों को 20% ज्यादा मूल्य मिलेगा.' लेकिन अगले 15 सालों में भ्रष्टाचार और फंड की कमी की वजह से कोई नतीजा नहीं निकला.
  • अक्टूबर 2000 में सीवान में पूर्व सीएम राबड़ी देवी ने चुनावी रैली में कहा था, 'सीवान और सारण की मिलों में दोबारा जान फूंकी जाएगी, जिससे मजदूरों का प्रवासन रुक जाएगा.' लेकिन हकीकत कुछ और ही रही. 1997 में बंद हुई मढ़ौरा मिल आज तक बंद है.
  • अक्टूबर 2005 में लालू प्रसाद यादव ने फिर कहा, 'राजद के सत्ता में आते ही मढ़ौरा और सीवान मिलों को पुनर्जीवित किया जाएगा और जंगल राज खत्म होगा.' लेकिन 2005 की हार के बाद कोई प्रगति नहीं हुई.

4. नीतीश कुमार की सरकार (2005 से 2025 तक): 20 सालों की हकीकत

  • नवंबर 2005 में पटना में नीतीश कुमार ने कहा था, 'मोतिहारी समेत सभी बंद मिलों को दोबारा खोला जाएगा.' नीतीश की सरकार बनी, जिसके बाद बिहार गन्ना विभाग बनाया और सलाहकार की नियुक्ति भी हुई, लेकिन मोतिहारी बंद ही रही. मिल्स खोलने का वादा ठंडे बस्ते में चला गया.
  • अक्टूबर 2010 में समस्तीपुर में सीएम नीतीश कुमार ने कहा था, '15 सराकरी मलों का विकास होगा और मजदूरों को समय पर भुगतान किया जाएगा.' यह वादा NDA के घोषणापत्र में भी था. लेकिन 15 सालों में कोई नई मिल शुरू नहीं हुई.
  • अक्टूबर 2015 में दरभंगा में चुनाव अभियान में नीतीश ने फिर कहा, 'सकरी और रैयाम मिलों का विकास होगा, जिससे 1 लाख किसानों को फायदा पहुंचेगा.' इस बार यह वादा महागठबंधन के घोषणापत्र में था. लेकिन 2015-2017 के बीच कोई विकास नहीं किया गया.
  • नवंबर 2020 को मुजफ्फरपुर में चुनाव अभियान के दौरान नीतीश ने वादा किया कि मोतिपुर और वारिसलीगंज का विकास होगा और इथेनॉल के लिए 5 करोड़ रुपए का अनुदान मिलेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, 2011 से मोतिपुर मिल बंद की बंद ही रही.
  • 25 नवंबर 2025 को पटना में कैबिनेट बैठक में नीतीश कुमार ने कहा, '9 बंद मिलों को दोबारा शुरू किया जाएगा और 25 नई मिलें खुलेंगी, जिससे 1 करोड़ नौकरियां मिलेंगी.' लेकिन इस बार भी इस वादे पर भरोसा कम है.

1 नवंबर 2025 को गोपालगंज में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि रीगा मिल चालू होगी और अगले 5 सालों में सभी बंद मिलें भी खुल जाएंगी. अभी इस वादे पर कार्यान्वयन होना बाकी है.

सवाल 4- बिहार में चीनी मिल्स का शुरू होना कितना जरूरी है?जवाब- एक्सपर्ट्स के मुताबिक, बिहार में चीनी मिलों का फिर से शुरू होना अर्थव्यवस्था, रोजगार और सामाजिक स्थिरता के लिए जीने-मरने का सवाल बन चुका है...

1. रोजगार और प्रवासन को रोकने का सबसे बड़ा हथियार

  • चंपारण, सारण, सीतामढ़ी, दरभंगा, समस्तीपुर, गोपालगंज और मधुबनी जैसे उत्तर बिहार के 18-20 जिलों में 70-80 लाख लोग गन्ना खेती और मिलों पर निर्भर थे. 1990 के बाद मिलें बंद होने से 4 लाख से ज्यादा गन्ना किसान और 1 लाख सीजनल मजदूर बेरोजगार हुए.
  • इन जिलों से हर साल 15-20 लाख युवा दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, सूरत और मुंबई मजदूरी करने जाते हैं. अगर मिलें फिर से चलें तो सीधे 1.5-2 लाख नौकरियां और 5-7 लाख ट्रांसपोर्ट, लोडिंग और दुकानों जैसे रोजगार शुरू हो जाएंगे. यानी बिहार से बाहर जाने वाले प्रवासियों का 30-40% हिस्सा यहीं रुक सकता है.

2. किसानों की आय दोगुनी करने का सबसे आसान रास्ता

  • बिहार में गन्ने का औसत उत्पादन 800-900 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो उत्तर प्रदेश से 20-25% ज्यादा है. लेकिन मिलें न होने से किसान को गन्ना बेचने के लिए 100-150 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है या फिर जूस, गुड़ या खांडा बनाना पड़ता है. इसमें 40-50% कम कमाई होती है.
  • एक चलती हुई मिल से किसान को करीब 400 रुपए प्रति क्विंटल मिल सकेगा. 10 एकड़ गन्ना खेती करने वाला किसान सालाना 6-8 लाख रुपए कमा सकता है, जो धान और गेंहू से 3-4 गुना ज्यादा है.

3. इथेनॉल और बिजली से एक्स्ट्रा कमाई का मौका

  • एक 2500 TCD मिल से सालाना 25-30 लाख लीट इथेनॉल बन सकता है. बिहार सरकार 20% ब्लेंडिंग टारगेट (पेट्रोल में 20% इथेनॉल मिलाने) के लिए हर साल करीब 110-120 करोड़ लीटर इथेनॉल चाहिए. लेकिन अभी बिहार में सिर्फ 10-12 मिलें चल रही हैं, जो मिलाकर भी मुश्किल से 12-15 करोड़ लीटर इथेनॉल बना पाती हैं. यानी बिहार को अभी 100 करोड़ लीटर इथेनॉल हर साल कम पड़ रहा है.
  • अगर सिर्फ 10 बंद पड़ी मिलें भी चालू हो जाएं, तो हर साल 2.5 से 3 करोड़ लीटर एक्स्ट्रा इथेनॉल बन सकता है. इससे सरकार का टारगेट पूरा होगा और इथेनॉल खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इसके अलावा प्रेसमड से जैविक खाद और बायो-सीएनजी भी बन सकती है, जिससे किसानों की एक्स्ट्रा कमाई होगी.

इसके अलावा अगर 20 मिलें भी चलीं तो सालाना गन्ना पेराई से 4-5 करोड़ रुपए मिलेंगे, राज्य राजस्व से 1200-1500 करोड़ रुपए और रोजगार भी बढ़ेगा. गन्ना किसान यादव, कुशवाहा, पासवान और अति पिछड़ा वर्ग के हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति मजबूत होगी.