Hum Do Hamare Do: शादी के बाद लड़की क्या चाहती है? इस सवाल के उतने ही जवाब हो सकते हैं जितनी लड़कियां हैं. हम दो हमारे दो भले ही परिवार नियोजन का दशकों पुराना चर्चित नारा हो मगर फिल्म इसे नए संदर्भ में पेश करती है. जब बचपन में मां-बाप को खो चुकी नायिका नायक से कहती है कि वह उसी लड़के से शादी करेगी, जिसकी एक स्वीट-सी फैमेली हो और जिसने एक प्यारे-से डॉगी को एडॉप्ट किया हो. मुश्किल यह कि लड़का अनाथ है और लड़की से वह डर के मारे सच नहीं बताता. अतः अपने लिए मां-बाप की तलाश करता है. मां-बाप मिल तो जाते हैं मगर उनका भी एक अतीत है.



त्यौहारों के मौसम में डिज्नी हॉटस्टार पर रिलीज हुई निर्देशक अभिषेक जैन की यह फिल्म पारिवारिक एंटरटेनर है. जिसका मूल सवाल यह है क्या हम अपनी फैमेली चुन सकते हैं. जवानी में हाथ से फिसल गए प्रेम के लिए आजीवन कुंवारे रह प्रेमी चाचा उर्फ पुरुषोत्तम मिश्रा (परेश रावल) का कहना है कि फैमेली चुन नहीं सकते. वह या तो होती है या नहीं होती है. यह फिल्म संयोगों का खेल है और बॉलीवुड का सिनेमा ऐसे खेलों से भरा पड़ा है. यह संयोग ही है कि ढाबे पर काम करते हुए बचपन गुजारने वाले और अब अपना स्टार्ट-अप खड़ा कर चुके ध्रुव को नकली पिता मिलता है तो सड़क से उठा कर उसे पालने वाले प्रेमी चाचा में. यह भी संयोग है कि प्रेमी चाचा की प्रेमिका दीप्ति कश्यप (रत्ना पाठक शाह) का पता भी आसानी से लग जाता है. यह भी संयोग है कि नायक और नायिका दोनों के माता-पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. इस तरह कहानी में संयोगों का सिलसिला चलता रहता है.


हम दो हमारे दो का मैदान छोटा-सा है लेकिन लेखक-निर्देशक ने इसमें रफ्तार बनाए रखी है. फिल्म कहीं ठहरती नहीं. इसकी बुनावट में आपको अलग-अलग परतें नजर आती हैं. राजकुमार-कृति सैनन और परेश-रत्ना पाठक शाह की कहानियां समानांतर चलती हैं. इनके बीच में कृति के चाचा-चाची के परिवार का मिक्स बढ़िया है. चाचा के रूप में मनु ऋषि चड्ढा का रोल रोचक है और वह यहां दर्शक का ध्यान खींचने में सफल हैं. बॉलीवुड फिल्मों में शादी के प्रसंग कहानी में नए रंग भरते हैं और हम दो हमारे दो में किराये के मां-बाप से लेकर तमाम रिश्तेदारों का इंतजाम करने वाले शादीलाल की भूमिका में सानंद वर्मा शानदार हैं. हालांकि लेखक-निर्देशक उनके किरदार से पूरा न्याय नहीं कर पाए. वह शानदार एंटरटेनर के रूप में यहां उभर सकते थे. शादीलाल का रोल कहानी में खलनायकी वाले खाली स्थान को भरने के जैसा मालूम पड़ता है. वैसे यह खलनायकी भी पूरे रंग में नहीं उभर पाती. हिंदी फिल्मों में अब परिस्थितियां ही ज्यादातर विलेन होती हैं. छोटी-छोटी बातों पर लोगों के बुरा मानने और फिल्मों के विरोध में झंडे उठा लेने की वजह से पर्दे पर बुरे लोगों की चर्चा धीरे-धीरे खत्म हो रही है. सिनेमा के लिए विपरीत परिस्थितियों में यह बदलाव रेखांकित करने जैसा है.



हम दो हमारे दो लगातार उतार-चढ़ाव के साथ आगे बढ़ती है. जिसमें राजकुमार और कृति की भूमिका रोमांटिक-कॉमिक है, वहीं परेश और रत्ना पाठक शाह इसमें संवेदनाएं पैदा करने का काम करते हैं. सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है. राजकुमार के दोस्त के रूप में अपरीक्षित खुराना ने अपना काम बखूबी किया है. सहायक कलाकारों ने फिल्म को गढ़ने में यहां अहम भूमिका निभाई है. राजकुमार राव लगातार इस तरह की पारिवारिक फिल्मों में अपने लिए खास जगह बना रहे हैं, जबकि कृति शुरुआती करिअर में फार्मूला भूमिकाएं करने के बाद प्रयोग के जोखिम लेने लगी हैं. मिमी के बाद यह उनकी लगातार दूसरी फिल्म है, जिसमें उनका अभिनय निखर कर आया है.


अभिषेक जैन ने गुजराती में तीन सफल बनाने के बाद बॉलीवुड में एंट्री ली है. गुजराती में उनकी अब तक की तीनों फिल्में चर्चा में रहीं और उन्होंने पुरस्कार भी जीते. हम दो हमारे दो में वह बताते हैं कि मसाला पारिवारिक एंटरटेनर बनाना उन्हें आता है. उनका निर्देशन कसा हुआ है और फिल्म सधी गति से आगे बढ़ती है. कथा-पटकथा पारंपरिक होने के बावजूद बांधती है. कैमरा वर्क अच्छा है. अंत में क्रेडिट्स के साथ बजने वाला बांसुरी गाना सुनने-देखने में सुंदर है. इसकी कोरियोग्राफी आकर्षक है.