Ajeeb Daastaans Review: फिल्म इंडस्ट्री की तमाम ऊंची दुकानों की तरह निर्माता करन जौहर के पास भी कंटेंट का संकट है. लेकिन उससे बड़ा संकट समझ का है. दुनिया को कैसे देखें और कैसी कहानियां दिखाएं. वन-टू का फोर फार्मूले वाली फिल्म अजीब दास्तान्स में वह चार कहानियां लाए हैं. करीब दो घंटे 22 मिनिट की फिल्म में चार निर्देशकों ने चार कहानियां बनाई और दावा यह कि ये अजीब दास्तानें हैं. जबकि इन कहानियों में कुछ अजीब भले न हो, इनका बनाया जाना अपने आप में अजीब है. इनकी कोई कॉमन थीम भी नहीं है. उल्टे निर्माता और निर्देशक कनफ्यूजन के झूले झूलते दिखते हैं. पहली कहानी में लगता है कि करन अपनी दोस्त एकता कपूर की गंदी बात के रास्ते पर हैं. दूसरी कहानी अनुराग कश्यप गैंग से आई लगती है. तीसरी में करन शायद प्रकाश झा के सिनेमा जैसा कुछ बनाना चाहते हैं और चौथी आते-आते साफ हो जाता है कि उन्हें नहीं पता कि क्या बनाना है. क्यों बनाना है का जवाब है, नेटफ्लिक्स के लिए.


अजीब दास्तान्स चार शॉर्ट फिल्मों का चुंचू-मुरब्बा है. जिसमें गालियों और अपशब्दों से बात शुरुआत होती है और अवैध संबंधों, समलैंगिक रुझानों से होते हुए साइन लैंग्वेज पर खत्म होती है. एक भी कहानी ऐसी नहीं है कि दर्शक को बांध सके. चारों के लेखक-निर्देशक यूं काम करते हैं, जैसे कोई टारगेट पूरा करना है. हम्प्टी शर्मा की दुल्हनिया, बद्रीनाथ की दुल्हनिया और धड़क जैसी रोमांटिक फिल्मों के निर्देशक शशांक खेतान की कहानी यहां है, मजनूं. यह उनकी फिल्मों से बिल्कुल अलग है. जिसमें एक रईस ने अपने बेटे (जयदीप अहलावत) की शादी नेता की बेटी (फातिमा सना शेख) से करा दी है. बेटा समलैंगिक है. तीन साल हो गए, पत्नी को उसने छुआ तक नहीं. कहानी में समलैंगिक हीरो के ड्राइवर के बेटे की अहम भूमिका है और वही कहानी में ट्विस्ट लाता है. यह एक हास्यास्पद, स्त्री विरोधी और सामांती सोच वाली कहानी है.




यशराज और करन जौहर कैंप की कई फिल्मों में सहायक रहे राज मेहता ने यहां दूसरी कहानी खिलौना का निर्देशन किया है. फिल्म समाज में अमीर-गरीब के बीच खाई की बात करते हुए कुछ-कुछ रामगोपाल वर्मा स्टाइल में सस्पेंस उकेरती है. एक कॉलोनी में नौकरानी का काम करने वाली मीनल (नुसरत भरुचा) नन्हीं बहन को पाल-पोस रही है. मीनल की खूबसूरती पर बुरी नजर रखने वाले कॉलोनी में है लेकिन वह एक इस्तरी वाले (अभिषेक बनर्जी) से प्यार करती है. कहानी के केंद्र में एक दुधमुंहे बच्चे का मर्डर है. यह उबाऊ आइडिया मनोहर कहानियांनुमा पत्रिका से लिया लगता है. अगली कहानी का टाइटल है, गीली पुच्ची. टाइटल से भले ही किसी की लार टपके मगर फिल्म में हर स्तर पर कनफ्यूज है और मसान जैसी चर्चित फिल्म के निर्देशक नीरज घेवन निराश करते हैं. इसमें दो युवतियों के समलैंगिक आकर्षण, स्त्री गर्भधारण पर विस्तृत चर्चा के बीच ब्राह्मण-दलित का तड़का भी हैं.


नई-नवली शादीशुदा प्रिया (अदिति राव हैदरी) यूं तो अच्छे घर की दिखती है लेकिन पता चलता है कि ससुराल में 11 लोग हैं. कमरे कम हैं. पति-पत्नी को एकांत नहीं मिलता कि परिवार आगे बढ़ा सकें. अपने फैक्ट्री-सहकर्मियों के बीच मर्दाना समझी जाने वाली भारती (कोंकणा सेन शर्मा) उसे पति-मिलन के लिए अपना कमरा मुहैया कराती है. आखिरी फिल्म अनकही नींद की गोली का काम करती है. आप आजमा सकते हैं. इसके निर्देशक कायोज ईरानी ऐक्टर बोमन ईरानी की पुत्र हैं. कोई कह सकता है कि करन जौहर ऐक्टिंग के साथ निर्देशन में भी नेपोटिज्म को बढ़वा दे रहे हैं. कायोज की कहानी में एक किशोरवय लड़की सुनने की क्षमता खो रही है. उसके मां-बाप में हमेशा झगड़ा होता रहता है. मां (शेफाली शाह) भविष्य में बेटी से संवाद बनाए रखे के लिए साइन लैंग्वेज सीखने-समझने की कोशिश करते हुए, एक बधिर फोटोग्राफर (मानव कौल) के प्रेम में पड़ जाती है.




कुल जमा इस एंथोलॉजी फिल्म का कोई लक्ष्य नजर नहीं आता. कमजोर के कहानियों के बीच न तो निर्देशक असर छोड़ते हैं और न ऐक्टर. फिल्म बताती है कि बॉलीवुड के बड़े नाम ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहां उन्हें नई राह नहीं सूझ रही. वह एक साथ कई चीजें आजमा रहे हैं कि कहीं तो तुक्का भिड़ जाए. मजनूं और खिलौना जैसी कहानी से वह उस उत्तर भारतीय दर्शक की नब्ज पकड़ना चाहते हैं जो गाली-गलौच, खून-खराबे, सेक्स, सामंती राजनीति और स्त्री को भोग की वस्तु जैसे देखते हुए एंटरटेन होता है. जबकि गीली पुच्ची और अनकही में महानगरीय और उन्मुक्त सोच वाले दर्शक को बांधने की कोशिश है. सचाई यह है कि दो नावों की सवारी में फिल्म डूब जाती है और दर्शक मनोरंजन के लिए हाथ-पैर मारता रहता है.