Vedas: वेद मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन ग्रन्थ है, जल को वेदों में पूजते हैं और वरुण देव की सहायता से मानव संसाधन विकास के लिए कार्य भी करतें हैं. वेद ज्ञान के अथाह समुद्र है. आध्यात्मिक ज्ञान के अतिरिक्त समाज, शासन, विविध कलाओं एवं आयुर्विज्ञान के असीम ज्ञानकोष है. इनमें जल-विज्ञान, मौसम-विज्ञान, सिंचाई एवं नौ-संचालन सम्बन्धी विस्तृत जानकारी है.


वेद जल को बहुत महत्व दिया गया है. प्रातःकाल प्रार्थना करते समय और संध्या वन्दन आदि करते समय हम जल के प्रति प्रणति निवेदन करते हैं- 


शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु नः ।। (अथर्व वेद 1.6.1)


अर्थ– दिव्य जल हमें सुख दे और इष्ट-प्राप्ति के लिए और पीने के लिए हो. हम पर शान्ति का स्रोत चलाएं. वेद जल की महत्ता विभिन्न स्थलों पर निरन्तर प्रतिपादित करते हैं और दोनों प्रकार के अपवाह अर्थात सतही एवं भौमजल का वर्णन करते हैं.



  • अफ्वन्तरमृतमप्सु भेषजम् (अथर्व वेद 1.4.4) अर्थात जल में अमृत है, जल में औषधि गुण हैं.

  • अन्तर्विश्वानि भेजषा (अथर्व वेद 1.6.2) जल में सब औषधियां हैं.

  • शं नः खनित्रिमा आपः (अथर्व वेद 1.6.4) खोदकर निकाला जल अर्थात भौमजल हमें सुख देवें. 

  • शिवा नः सन्तु वार्षिकीः (अथर्व वेद 1.6.4) वृष्टि से प्राप्त जल हमें कल्याण करने वाला हो.


जल-विज्ञान :–


जिस जल-वैज्ञानीय चक्र पर हमारा पूरा जल-विज्ञान निर्भर है, उसका वर्णन वेदों में कई स्थानों पर आया है– आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे। अधाना नाम यज्ञियम् ॥ (ऋग् वेद 1.6.4). जिसका तात्पर्य यह कि जल जो सूर्य के ताप से छोटे-छोटे कणों में विभक्त हो जाता है, वह वायु द्वारा ऊपर बादलों में परिवर्तित होकर फिर बार-बार वर्षा-रूप में गिरता है.


ऋग्वेद की एक ऋचा- इन्द्रो दीर्घाय चक्षस आ सूर्य रोहयत् विवि। वि गोभिरद्रिमैरयत्। (ऋग्वेद 1.7.3) यह ऋचा कहती है कि प्रभु ने सूर्य उत्पन्न किया, जिससे पूरा संसार प्रकाशमान हो. इसी प्रकार सूर्य के ताप से जल वाष्प बनकर ऊपर मेघों में परिवर्तित होकर फिर पृथ्वी पर वर्षा रूप में आता है.


वेदों में अन्य स्थानों पर भी इसी बात को दोहराया गया है कि सूर्य एवं वायु द्वारा जल वाष्प के रूप में आकाश में मेघ बनता है और फिर वर्षा-रूप में पृथ्वी पर आता हैं (समन्या यन्त्युपयन्त्यन्याः समानपूर्वं नद्यस्पृणन्तितम् शुचिः शुचयो दीदिवाः समपान्नपातमुप पन्त्यायः।। सामवेद पूर्वार्चिक 6.607)।


यजुर्वेद में समुद्र से मेघ, मेघ से पृथ्वी और फिर विभिन्न सरिताओं में जल के बहाव और फिर समुद्र में उसके संचयन एवं वाष्पन का वर्णन हैं
(प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिच इयानाः। ता आऽववृत्रन्त्रधरागुदक्ता अहिं बुध्न्यमनु रीयमाणाः । विष्णोर्विक्रमणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि ।। {यजुर्वेद है 10.19})। अथर्ववेद के (1.5.2; 1.32.4) - इन मन्त्रों में भी इसका प्रतिपादन किया गया है. वर्ष के विभिन्न काल, गर्मी, वर्षा, शीत आदि ऋतुओं का सूर्य से सम्बन्ध वेदों में विभिन्न मन्त्रों में दर्शाया गया है (ऋग्वेद 1.23.14; 1.95.3; 1.161.11;1.164.47). मेघों के निर्माण एवं वृष्टि के बारे में अनेक मन्त्र हैं (ऋग्वेद 1.27.6; 1.32.8;1.32.12; 1.37.11; 5.55.3; 6.20.2)।
मेघ, वर्षा, विद्युत् आदिका सजीव एवं वैज्ञानिक चित्रण वेदों में मिलता हैं। (ऋग्वेद 1.79.2; 5.54.2; 5.55.5; 1.19.3-4; 1.19.8; 5.53.6; 5.53.7; 5.53.17)।


वेदों में मानसून का वर्णन:-


मानसून का स्पष्ट वर्णन ऋग्वेद में नहीं है, लेकिन मारुति-सम्बन्धी मन्त्र इस विषय में जानकारी देते हैं और बाद में यजुर्वेद संहिता में मानसून का वर्णन 'सलिलवात' के रूप में हुआ है-
"वर्च इदं क्षत्त सलिलवातमुग्रं धर्ची दिशां क्षत्रमिदं दाधारोपस्थाशानां मित्रवदस्त्योजः। (सोर्स - तैत्तिरीय)"
ऋग्वेद में दक्षिण-पूर्व एवं दक्षिण-पश्चिम मानसून का भी वर्णन है (सोर्स - ऋग्वेद 10.137.2; 1.19.7)।


वेदों में कई स्थानों पर अच्छी वर्षा के लिए अनेक प्रार्थना-मन्त्र हैं-


उदीरयत मरुतः समुद्रतस्त्वेषो अर्को नभ उत्पातयाथ। महऋषभस्य नदतो नभस्वतो वाश्रा आपः पृथिवीं तर्पयन्तु ॥ (अथर्व वेद 4.15.5) 
हे वायुओ। सूर्य की उष्णता से बादलों को समुद्र से ऊपर ले जाओ और ऊपर उड़ाओ. बड़े बलवान और शब्द करने वाले बादलयुक्त आकाश से वेगवान् जल–धाराएं पृथ्वी को तृप्त करें.


विभिन्न प्रकार के जलों का वेदों में बड़ा ही कल्याणकारी वर्णन है:-


शं न आपो घन्वन्याः शमु सन्त्वनूप्याः। शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आभृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः ।। (अथर्व वेद 1.6.4)
हमारे लिए मरुदेश का जल सुखकारक हो, जलपूर्ण प्रदेश का जल सुखकारक हो, खोदे हुए कुएं आदि का जल सुखदायक हो, घड़े में भरा जल सुखदायक हो, वृष्टि का जल सुखदायक हो.


वेदों में जल की गुणवत्ता को रखने के लिए, वातावरण को शुद्ध रखने के लिए एवं पर्यावरण को ठीक रखने के विभिन्न उपाय-जैसे पेड़ लगाना, वनों की रक्षा और यज्ञों का विधान है- 
प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्वः। इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत् पर्जन्यः पृथिवी रेतसावति ।। (ऋग्वेद 5.83.4)


सिंचाई को लेकर वेदों में वर्णन:

पृथ्वी पर सृष्टि क्रम से प्राकृतिक रूप से वर्षा द्वारा सिंचाई का कार्य होता आ रहा है. अतः वेद में कहा गया है-


निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु० (यजुर्वेद 22.22) अर्थात हम जब-जब इच्छा करें, मेघ जल की वर्षा करें. अब जो इस विद्या में (सिंचाई कराने में) कुशल हो, उन्हें देश एवं राष्ट्रका सम्मान करना चाहिए. इसलिए कहा- नमो मीढुष्टमाय-अत्यन्त वर्षा करने वालों (अर्थात सिंचाई के लिए जल देने वालों) के लिए आदर हो (यजुर्वेद 16.29)


नमो वीध्याय च-अभ्र-विज्ञान (मेघ-विज्ञान) में कुशल के लिए नमस्कार हो. अतप्याय च - आतप (उष्णता) विज्ञान में कुशल के लिए नमस्कार हो. नमो मेध्याय च-मेघ-विज्ञान में कुशल के लिए नमस्कार हो. विद्युत्याय च विद्युत्-विज्ञान में कुशल के लिए नमस्कार हो. नमो वर्ध्याय च वर्षा-विज्ञानमें कुशल के लिए नमस्कार हों (यजुर्वेद 16.38)


इन वेद-वाक्यों में बताया गया है कि वर्षा विज्ञान को जानो और वर्षा यथेच्छ समय से कराओ.
इन सब विज्ञानों का प्रयोग जब वर्षा के लिए करते, तब जो प्रणाली निर्धारित करके प्रयोग किया जाता है, वह वेद की परिभाषा में 'वृष्टि-यज्ञ' होता है. इसलिए वेद ने कहा है- 
वृष्टिश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् (यजुर्वेद 18.9)


मेरी वृष्टि यज्ञ के द्वारा सुसम्पन्न एवं समर्थ हो. इस प्रकार के यज्ञ (प्रयत्न, योजना) से वृष्टि के द्वारा सर्वत्र आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर जल की पूर्ति एवं सिंचाई की व्यवस्था हो सकती है. इसी प्रकार (ऋग्वेद 1.23.18, 5.32.2) मन्त्रों में कहा गया है कि सिंचाई कुएं और तालाबों के जल से हो सकती है. ऋग्वेद के मन्त्र (ऋग्वेद 8.3.10)- में नहरों द्वारा मरुस्थल को सींचने की व्यवस्था है, जो कुशल व्यक्ति (इंजीनियर) द्वारा सम्भव है-


येना समुद्रमसृजो महीरपस्तदिन्द्र वृष्णि ते शवः । सद्यः सो अस्य महिमा न संनशे यं क्षोणीरनुचक्रदे (ऋग्वेद 8.3.10)



  • यजुर्वेद में इस प्रकार के अनेक संदर्भ हैं कि मनुष्य वर्षा एवं नदी के जल को कुआं, तालाब एवं बांध बनाकर प्रयोग करे और जहां कृषि के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए जल को आवश्यकता हो वहां भी ले जाए.

  • अथर्ववेद के मन्त्र (12.1.31) में बताया गया है कि जो वर्षा का जल नदी, कुएं और नहर आदि में नौ संचालन, जलक्रीडा और कृषि आदि के लिए प्रयोग करते हैं, वे सदैव उन्नति करते हैं. अथर्व वेद के मन्त्र (19.2.1) में बताया गया है कि पर्वत, कूप, नदी और वर्षा के जल का उचित प्रबन्ध जल पीने, कृषि एवं उद्योगों के लिए करना चाहिए.

  • अथर्व वेद 19.2.1 एवं 20.22.8 मन्त्र में वेद राजा को निर्देश देते हैं कि वे पहाड़ों में उचित नहर (जलमार्ग) बनाएं ताकि उनकी प्रजा को पीने, सिंचाई एवं उद्योगों के लिए जल मिल सके.


यजुर्वेद (16।37) में सिंचाई के प्रमुख स्रोतों के निम्न प्रयोग वर्णित हैं-
नमः सुत्याय-जो क्षुद्र नालियाँ केवल एक दिन बहनेवाली हैं।
पध्याय च-नौ-संचालन-मार्ग।


नमः काट्याय च-कूपादि बनाने वालों के लिए आदर है. नीप्याय च-झरने आदि बनाने में कुशल के लिए आदर हो. नमः कुल्याय च कृत्रिम नदी, बड़ी नहरें बनाने के कार्य में कुशल के लिए आदर हो. सरस्याय च-बड़े तालाब आदि बनाने में कुशल के आदर के लिए हो. नमो नादेयाय च - नदियों की व्यवस्था करने में कुशल के लिए आदर हो. वैशन्ताय च-छोटे तालाब, बांध आदि बनाने में कुशल के लिए आदर हो.


नौ-संचालन को लेकर वेदों में क्या कहा गया है:–


वेद-काल के आर्यों को नदियों की सहायता से क्षेत्रों के ढालों का ज्ञान था (एते सोमा अति वाराण्यव्या दिव्या न कोशासो अभ्रवर्षाः । वृथा समुद्रं सिन्धवो न नीचीः सुतासो अभि कला असूग्रन् ।{ऋग्वेद 19.88.6})।


विभिन्न अवस्थाओं में नदी के स्तर एवं गति का ज्ञान वेद में है. अथर्व वेद (ये नदीनां संस्त्रवन्त्युत्सासः सदमक्षिताः।1.15.3) में कहा गया है कि यदि नदी का उद्म पर्वत में हो तो नदी बारहमासी होगी और जल की गति तीव्र होगी.


जल में चलने वाली नावों का वर्णन वेद में है- सुनावमा रुहेयमस्त्रवन्तीमनागसम् शतारित्रार्थं स्वस्तये ।। (यजुर्वेद 21.7)
सुन्दर, उत्तम एवं श्रेष्ठ नाव पर मैं कल्याण के लिए आरूढ़ होता हूं, जोकि कहीं से भी स्रवित नहीं होने वाली है और दोषरहित है. उस नाव में शताधिक चप्पे लगे हुए है. ऐसी बहुत चप्पों वाली बड़ी नाव का वेद में वर्णन है- सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसर्थ सुशर्माणमदितिथं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावधं स्वरित्रामनागसमस्त्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये॥ (यजुर्वेद 21.7)
आर्य लोग समुद्र पर बड़ी-बड़ी नाव चलाते थे, यह उनके द्वारा जलनाथ (समुद्र-देवता) की स्तुति से स्पष्ट है. वेदों में पनडुब्बी नावों का भी वर्णन है-


यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्यथीरन्तरिक्षे चरन्ति । ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः ॥ 
हे पूषन् ! जो तेरी नावें समुद्र के गर्भ में भीतर चलती है और अन्तरिक्ष में भी चलती है, उनके द्वारा दूत-कर्म प्राप्त होता है.
वेद जल एवं अन्तरिक्ष दोनों में चलने वाली नौकाओं (यानों) के यन्त्रादि बनाने की प्रेरणा देता है- वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम्। वेद नावः समुद्रियः॥ (ऋग्वेद 1.25.7)


वेदों में वरुण देवता को समुद्र के जल मार्गों और उन पर चलने वाले समुद्र के यानों की जानकारी रखने वाला माना गया है. यह भी वर्णन है कि व्यापारी विदेशों को सामान भेजते थे. अथर्ववेद में भी बड़ी नावों का वर्णन है. वेद प्रत्येक प्रकार के यान एवं गमनागमन के लिए इंगित करते हैं-



समुद्रं गच्छ स्वाहा ऽन्तरिक्षं गच्छ स्वाहा द्यावापृथिवी गच्छ स्वाहा दिव्यं नभो गच्छ स्वाहा (यजुर्वेद 6.21)। 
अर्थ: –



  • समुद्रं गच्छ- समुद्र में जानेवाली नौका बोट, पोत, जहाज आदि.

  • अन्तरिक्षं गच्छ - अन्तरिक्षमें चलने वाले विमानादि. 

  • द्यावापृथिवीं गच्छ - भूमियान, आकाश-मार्गक विमान आदि.

  • दिव्यं नभो गच्छ- दिव्य यान (सम्भवतः अन्तरिक्ष यान, सैटेलाइट).


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