Mirza Ghalib Ghazal: इश्क की तहजीह दुनिया को मिर्जा गालिब ने अपनी नज्म, शेरो-शायरी और गजलें से सिखाई. अपनी गजलों और शायरियों से ही गालिब पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के बीच जिंदा हैं. ऐसे में जब भी शायरी और गजलों की बात होती है, तो मिर्जा गालिब के नाम का जिक्र न आए, ऐसा भला कैसे हो सकता है.


मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था. गालिब की लिखी गजलें आज भी उन्हें जिंदा रखती हैं. जिस तरह इश्क नया या पुराना नहीं होता, उसी तरह गालिब की गजलें आज भी नई और युवा पीढ़ी के बीच पसंद की जाती है. गालिब की गजलें प्रेमी जोड़ों को अपनी ओर आर्कषित करती है. यह कहना गलत नहीं होगा कि, दुनिया में जब तक इश्क रहेगा, गालिब भी अपनी गजलों से लोगों के बीच जिंदा रहेंगे. आइये जानते हैं मिर्जा गालिब की चुनिंदा गजलें-


मिर्जा गालिब की चुनिंदा गज़लें (Best Ghazals Of Mirza Ghalib)


सरापा’ रहने-इश्क़-ओ-नागुज़ीरे-उल्फ़ते-हस्ती’


सरापा’ रहने-इश्क़ -ओ-नागुज़ीरे-उल्फ़ते-हस्ती’
इबादत बरक़ की करता हूँ और अफ़सोस हासिल का


बक़दरे-ज़रफ़’ है साक़ी ख़ुमारे-तश्नाकार्मी’ भी
जो तू दरिया-ए-मैं’ है, तो मैं ख़मियाज़ा’ हूं साहिल का


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले


डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो खूं, जो चश्मे-तर’ से उम्र यों दम-ब-दर्मा निकले


निकलना ख़ुल्द’ से आदर्मा का सुनते आए थे लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले


भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क्रामर्ता की दराज़ी’ का
अगर उस तुर्र-ए-पुर-पेच-ओ-ख़र्म’ का पेच-ओ-ख़म निकले


हुई इस दौर में मंसूर्बा’ मुझसे बादा-आशामी’
फिर आया वह ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम” निकले


हुई जिनसे तवव़क़ो” ख़स्तगी’ की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता-ए-तेगे-सितम’ निकले


अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले


जरा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम’ निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले


मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देखकर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले


ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज्ञालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही क़ाफ़िर सनम निकले


कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहां वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले


नक़श’ फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का


नक़श’ फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन हर पैकर-ए-तसवीर का


काव-कार्व-ए सख्तजानी हाय तनहाई न पूछ
सुबह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का


जज़्बा -ए-बेअखतियारे-शौक़ देखा चाहिए
सीना-ए-शमशीर से बाहर है दमा शमशीर का


आगही दामे-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
मुदूदआ अन्क्रा है अपने आलमे-तक़रीर का


बस कि हूं  ग़ालिब असीरी  में भी आतिश-ज़ेर-पा
मूए-आतिश-दीदा  है हल्क़ा मेरी जंजीर का


रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो 


रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो 
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बां कोई न हो 

बे-दर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए 
कोई हम-साया न हो और पासबाँ कोई न हो 

पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार 
और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वां कोई न हो 


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