भारत के गांवों और आदिवासी इलाकों में आज भी पीरियड्स (माहवारी) पर बात करने में लोग बहुत शर्माते हैं या हिचकिचाते हैं. इसी चुप्पी की वजह से कई महिलाएं साफ-सफाई के जरूरी सामान (जैसे सैनिटरी पैड्स) इस्तेमाल नहीं कर पातीं. इसका सीधा असर उनकी सेहत और आत्मविश्वास पर पड़ता है. ऐसे मुश्किल हालात में 'जेनेरिक आधार' के युवा फाउंडर अर्जुन देशपांडे की कोशिश बहुत खास और अलग मानी जा रही है.
उल्लेखनीय बात यह है कि अर्जुन देशपांडे ने यह स्टार्टअप सिर्फ 16 साल की उम्र में शुरू किया था और आगे चलकर उन्हें रतन टाटा का मार्गदर्शन और समर्थन भी मिला, जिसने उनके मिशन को और मजबूत नींव दी. दवाइयां सस्ती और सुलभ बनाने की अपनी यात्रा के दौरान अर्जुन को यह समझ आया कि असली स्वास्थ्य सुधार तभी संभव है, जब उन जरूरतों को भी देखा जाए, जिन्हें समाज अक्सर नज़रअंदाज़ कर देता है.
टीम ने कम लागत पर तैयार किए पैड
इसी सोच से ‘स्त्री शक्ति’ एक नो-प्रॉफिट पहल शुरू हुई. यह कोई बड़ा इवेंट नहीं था, बल्कि गांवों और आदिवासी बस्तियों में की गई यात्राओं से निकला हुआ विचार था. कई जगहों पर महिलाओं ने जीवनभर सैनिटरी पैड का इस्तेमाल ही नहीं किया था, इसलिए टीम ने कम लागत पर पैड तैयार किए और बेहिचक सीधे घर-घर जाकर उन्हें पहुंचाया. अब तक तीन लाख से अधिक पैड बांटे जा चुके हैं.
पहली बार आदिवासी समुदायों में पहुंची यह सुविधा
महाराष्ट्र के कठिन इलाकों से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, झारखंड और पूर्वोत्तर भारत तक. इन राज्यों में खासकर दूरस्थ आदिवासी समुदायों में यह सुविधा पहली बार पहुंची. कई महिलाएं पहले संकोच में थीं, कुछ आश्चर्य में, लेकिन लगभग हर चेहरे पर यह अहसास था कि अब उनकी सेहत को लेकर कोई सच में सोच रहा है. अर्जुन और उनकी टीम पैकेट देकर आगे नहीं बढ़ते, बल्कि वे रुकते हैं, समझाते हैं और बताते हैं कि स्वच्छता किसी एहसान की नहीं, बल्कि महिलाओं के बुनियादी अधिकारों की बात है.
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