Kisan Andolan: किसानों का आंदोलन देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है. पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश से किसान पूरे जोश और जुनून के साथ सभी फसलों को एमएसपी के दायरे में लाने और एमएसपी की गारंटी के मुद्दे को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. बीते 13 फरवरी से देश भर के तकरीबन 150 से ज्यादा संगठन शंभू बॉर्डर पर डटे हुए हैं. 


सिंघवाला खनोरी बॉर्डर पर किसानों और पुलिस के बीच आमने-सामने की लड़ाई छिड़ गई. दोनों तरफ से जमकर लाठी-डंडे चले. किसानों पर आंसू गैस के गोले दागे गए, किसानों को दिल्‍ली में घुसने से रोकने के लिए धारा-144 लागू कर दी गई और हरियाणा से सटे इलाकों में इंटरनेट सेवाएं भी ठप हैं. 


इसी बीच सवाल ये भी उठता है कि आखिर किसान आंदोलन के जनक कौन थे, जिनके अगुआई में किसानों के संघर्ष और हक को आवाज मिली थी और जो मजदूरों के अधिकार के लिए, राजनीतिक और व्यापारियों सब से भिड़ गए थे. आइए जानते हैं. 


किसान आंदोलन के जनक
भारत में किसान आंदोलन का जनक "दंडी स्‍वामी सहजानंद सरस्‍वती" को कहा जाता है, जोकि एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे. उनके बारे में एक लेखक ने अपनी किताब में लिखा है कि पटना में मजहर उल हक के घर पर इनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई, जिसके बाद गांधी के विचारों से प्रभावित होकर वे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में कूद पड़े. खुद स्वामी सहजानंद ने 1941 में प्रकाशित आत्मकथा 'मेरा जीवन संघर्ष' में गांधी से मुलाकात को बेहद सुन्दर अनुभव के तौर पर बयां किया है कि किस तरह वे गांधी और उनके काम से प्रभावित हुए. 


स्वामी सहजानंद 1922 में पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए जेल गए. जेल में उनकी मुलाकात पंडित नेहरू समेत कई नेताओं से हुई. वह एक साल जेल में रहने के बाद बाहर आए. इसके बाद वह 1925 तक गाजीपुर में सक्रिय रहे. उन्होंने 1932 में बिहार के बिहटा में चीनी मिल खोलने में बड़ी भूमिका निभाई.


किसानों पर होने लगा था जुल्म 
बिहार में गांधी के विचारों को मानने वाले उद्योगपति आरके डालमिया ने चीनी मिल शुरू किया, जिसकी स्थापना के प्रबंधन में राजेन्द्र प्रसाद भी शामिल थे और मदन मोहन मालवीय ने चीनी मिल का उद्घाटन किया था. मिल की स्थापना के समय तो मजदूरों के हक की बात की गई मगर धीमे-धीमे मिल के मजदूरों के साथ बर्बरता बढ़ गई और किसानों से आधी कीमत पर गन्ना खरीदा जाने लगा और मिल में काम करने वाले मजदूरों को कम मेहनताना दिया जाने लगा. 


डालमिया की दौलत भी नहीं खरीद पाई सहजानंद की खुद्दारी
स्वामी सहजानंद को खामोश करने के लिए उद्योगपति आरके डालमिया ने खुद उनसे दोस्ती का प्रस्ताव रखा, और स्वामी जी के आश्रम में हर महीने दान देने लगे, स्वामी सहजानंद डालमिया की चाल समझ गए और उनसे साफ कह दिया कि आप हर महीने पैसे भेजकर मेरा मुंह बंद करने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए ये रोक दें नहीं तो ऐसा होने से किसानों और मजदूरों के साथ अन्याय होता रहेगा. 


मिल में किसानों और मजदूरों के हालात खराब होते गए तो स्‍वामी सहजानंद ने आरके डालमिया के खिलाफ किसानों और विरुद्ध मजदूरों के हक में आंदोलन छेड़ दिया. डालमिया ने स्वामी सहजानंद को चुप रखने के लिए उनके बिहटा आश्रम को मदद के बहाने 10 हजार रुपये एकमुश्त और 200 रुपये हर महीने देने की पेशकश भी की. लेकिन, उनकी दौलत स्‍वामी सहजानंद को खरीद नहीं पाई.


किसानों के लिए भीड़ से गांधी से भी
आंदोलन में सक्रिय रहने के लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा, जेल में रहते हुए उन्होंने पाया कि महात्मा गांधी जमींदारों के प्रति नरम रवैया अपना रहे हैं, जिसको लेकर वे उनके नाराज होने लगे. 


1934 में आए भूकंप से तबाह किसानों की मालगुजारी में राहत दिलाने के वास्ते वे अपने आदर्श गांधी जी तक से भिड़ गए. हालात कुछ ऐसी बन गई कि स्वामी सहजानंद ने कांग्रेस तक छोड़ दिया और अलग होकर ही किसानों के लिए जीने-मरने का संकल्प ले लिया. अंतिम सांस तक वे किसानों के हक और अधिकारों के लिए लड़ते रहे. 26 जनवरी 1950 को किसान आंदोलन के जनक और स्वतंत्रता सेनानी स्वामी सहजानंद का देहांत हो गया. 


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