Cloud Seeding In Delhi: दिल्ली, जो इन दिनों प्रदूषण की गिरफ्त में है, अब एक अनोखे वैज्ञानिक प्रयोग की तैयारी में है. क्लाउड सीडिंग यानी आर्टिफिशियल बारिश. मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर बताया कि बुराड़ी इलाके में क्लाउड सीडिंग का सफल ट्रायल किया गया है. मौसम विभाग के अनुसार, 28 से 30 अक्टूबर के बीच आसमान में पर्याप्त बादल बनने की संभावना है. अगर मौसम ने साथ दिया तो 29 अक्टूबर को दिल्ली पहली कृत्रिम बारिश का अनुभव कर सकती है.
क्लाउड सीडिंग क्या है?
क्लाउड सीडिंग को सरल शब्दों में समझें तो यह बादलों को बीज देने की प्रक्रिया है. यानी वैज्ञानिक विमान या मशीनों के जरिए बादलों में ऐसे रसायन छोड़ते हैं, जो छोटे-छोटे जलकणों को मिलाकर बारिश की बूंदें बना देते हैं. ये रसायन बादलों में जाकर पानी के क्रिस्टल या बर्फ के टुकड़ों का निर्माण करते हैं, जिससे कुछ घंटों में बारिश शुरू हो जाती है.
क्लाउड सीडिंग का खर्च कितना होता है?
इस तकनीक की कीमत उसके क्षेत्र, समय और विधि पर निर्भर करती है. एक छोटे प्रोजेक्ट की लागत 12.5 लाख रुपये से 41 लाख रुपये तक हो सकती है. जबकि बड़े स्तर के प्रोजेक्ट्स पर 8 से 12 करोड़ रुपये सालाना तक खर्च आता है.
दिल्ली में कितना आएगा खर्चा?
दिल्ली के 2025 के ट्रायल्स के लिए सरकार ने 3.21 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं. ये रकम पांच ट्रायल्स के लिए है, जिनमें हर एक ट्रायल का खर्च 55 लाख से 1.5 करोड़ रुपये तक होगा. इसके अलावा शुरुआती सेटअप और उपकरणों की लागत 66 लाख रुपये रही. अगर इसे क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाए तो 100 स्क्वायर किलोमीटर में बारिश कराने के लिए लगभग 1 लाख रुपये प्रति किलोमीटर का खर्च बैठता है.
क्लाउड सीडिंग कैसे काम करती है?
अब सवाल है कि क्लाउड सीडिंग कैसे काम करती है. दरअसल बादलों में नमी होती है, लेकिन अक्सर वो खुद से बारिश नहीं कर पाते हैं. वैज्ञानिक विमान से रसायन डालकर इन बादलों को सक्रिय करते हैं. ठंडे बादलों में बर्फ बनाकर और गर्म बादलों में नमक के जरिए बूंदें बढ़ाई जाती हैं. ये बूंदें मिलकर भारी होती हैं और जमीन पर गिरने लगती हैं. तकनीक की सफलता औसतन 10% से 30% तक होती है, यानी पूरी गारंटी नहीं है, लेकिन हवा साफ करने के लिए ये असरदार तरीका साबित हुआ है.
किन रसायनों और तकनीकों का इस्तेमाल होता है?
इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से सिल्वर आयोडाइड (AgI), पोटैशियम आयोडाइड, ड्राई आइस (ठोस कार्बन डाइऑक्साइड) और लिक्विड प्रोपेन जैसे रसायन उपयोग में लाए जाते हैं. भारत में आमतौर पर सोडियम क्लोराइड (नमक) और कैल्शियम क्लोराइड का प्रयोग होता है.
तकनीक की बात करें तो CAIPEEX नामक प्रोजेक्ट में हाइग्रोस्कोपिक फ्लेयर तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें हवा में कण फैलाकर बड़े आकार की बूंदें बनती हैं. दिल्ली में यह काम हवाई जहाजों से 90 मिनट की फ्लाइट के दौरान किया जाएगा. भविष्य में ड्रोन और रॉकेट से भी इस तकनीक को आजमाने की योजना है.
क्लाउड सीडिंग से क्या होगा फायदा?
यह तकनीक न सिर्फ प्रदूषण कम करने में मदद करती है, बल्कि सूखे इलाकों में पानी की उपलब्धता भी बढ़ा सकती है. दिल्ली में यह प्रयोग फिलहाल हवा को साफ करने और AQI स्तर घटाने के उद्देश्य से किया जा रहा है.