हॉलीवुड के 'द किंग ऑफ कूल' कहे जाते थे स्टीव मैक्वीन. 1960 और 70 के दशक में जब भी पर्दे पर कोई बागी नायक आता, दर्शक समझ जाते कि वह स्टीव मैक्वीन ही होगा. उनकी आंखों में एक अजीब सी कशिश, तो चाल में एक अलग आत्मविश्वास था. लेकिन यह चमक भीतर के अंधेरे को छिपा नहीं सकी. 7 नवंबर 1980 को, सिर्फ पचास साल की उम्र में, यह सुपरस्टार दुनिया को अलविदा कह गया, अपने ही बनाए रास्ते पर, बिना किसी से समझौता किए.

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फिल्म की तरह ही रहा पूरा जीवन स्टीव का बचपन किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं था. पिता जन्म के कुछ महीनों बाद ही छोड़ कर चले गए और मां शराब की लत में डूबी रहीं. छोटी उम्र में स्टीव को अनाथालय और सुधार गृहों में रहना पड़ा, जहां हिंसा और अकेलापन उनके साथी बन गए. यही दर्द बाद में उनके अभिनय की गहराई बना. 2011 में मार्क इलियट की लिखी किताब 'स्टीव मैक्वीन: अ बायोग्राफी' में उनकी जिंदगी का दर्द बाखूबी बयां किया गया है.

अनुशासन तो सीखा लेकिन विद्रोह नहीं गया किशोरावस्था में उन्होंने अमेरिकी मरीन कोर्प्स में भर्ती होकर अनुशासन सीखा, पर भीतर का विद्रोही कभी नहीं गया. हॉलीवुड पहुंचने के बाद उन्होंने 'द ग्रेट एस्केप', 'बुलिट', 'द मैग्नीफिसेंट सेवन', और 'पैपिलॉन' जैसी फिल्मों से दुनिया को दिखा दिया कि एक सितारा भी व्यवस्था से अलग रहकर अपनी पहचान बना सकता है. शोहरत जितनी तेजी से चढ़ी, उतनी ही तेजी से भीतर का खालीपन बढ़ता गया. 

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स्टीव तेज कारों, मोटरसाइकिलों और रेसिंग के दीवाने थे. वे अक्सर कहते थे, 'अगर मैं किसी चीज को पूरी रफ्तार में नहीं जी रहा, तो मैं जी ही नहीं रहा.' यह जज्बा धीरे-धीरे एक जुनून बन गया. शराब, सिगरेट और नशे ने शरीर को तोड़ना शुरू किया. 1979 में उन्हें फेफड़ों का कैंसर हुआ —मेसोथेलियोमा, जो अक्सर एस्बेस्टस के संपर्क से होता है. डॉक्टरों ने उन्हें आराम की सलाह दी, लेकिन उन्होंने हार मानने से इनकार कर दिया.

तमाम उपचार के बाद भी शरीर ने नहीं दिया साथ आखिरी दिनों में स्टीव पारंपरिक इलाज छोड़कर मेक्सिको चले गए, जहां उन्होंने वैकल्पिक थेरेपी अपनाई. वहां उन्होंने सर्जरी करवाई, लेकिन शरीर अब साथ नहीं दे रहा था. 7 नवंबर 1980 की सुबह, ऑपरेशन के कुछ ही घंटे बाद उनका दिल थम गया. उनके चाहने वालों के लिए यह झटका असहनीय था. एक ऐसा आदमी जो हमेशा सीमाओं को तोड़ता रहा, मौत से भी समझौता नहीं कर सका.