नई दिल्ली: 'बड़ा नाम सुनते थे पहलू में दिल का, चीर के देखा तो कतरा ए खूं न निकला...' कुल मिलाकर संजय लीला भंसाली की फिल्म 'पद्मावत' पर उठे विवाद पर यह शेर सटीक बैठता है. फिल्म के शुरू में ही अपने डिस्कलेमर में भंसाली ने खुद को सारे फिल्मी कर्मों-कुकर्मों से मुक्त कर लिया है. उसमें कहा गया है कि फिल्म मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य 'पद्मावत' से प्रेरित है. ऐसा कह कर उन्होंने महाकाव्य को भी अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़ने मोड़ने की आजादी ले ली है. वह कहते हैं कि फिल्म सती प्रथा को बढ़ावा नहीं देती है. ऐसा कह कर उन्होंने फिल्म के अंत में करीब दस मिनट तक फिल्माए गये जौहर पर उठने वाले किसी भी विवाद से खुद को बचाने की कोशिश की है. वह कहते हैं कि फिल्म का किसी भी एतिहासिक पात्र से, नाम से, शहर से, परंपरा से, लोकगाथा से कोई लेना देना नहीं है. इतने भारी डिस्कलेमर के बाद भंसाली ने अपने हिसाब से 'पद्मावत' फिल्म बनाई है.



पूरी फिल्म दो ही पात्रों के आसपास घूमती है. एक चित्तौड़गढ़ की महारानी पद्मावती. दो, दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी. बाकी सभी पात्र हाशिए पर ही नजर आते हैं. यहां तक कि चित्तौड़ के महाराणा रतन सेन पर भी पद्मावती ही भारी पड़ती है. ऐसा लगता है कि फिल्म बनाने से पहले भंसाली के दिलोदिमाग में सिर्फ एक ही नाम था पद्मावती का और वह पद्मावती से बेहद प्रभावित नजर आते हैं. इस कदर प्रभावित कि फिल्म में पद्मावती पर ही पूरा ध्यान दिया गया है. पद्मावती की सुंदरता हो या कॉस्टयूम हो या फिर राज्य की जनता की भलाई के लिए किया गया त्याग हो. पद्मावती सिर्फ खूबसूरत नहीं है. वह बुद्धिमान भी है.


वह दिल से अपने महाराणा से प्यार करती है तो दिमाग से भी बखूबी काम लेती है. वह राजकाज में भी निर्णायक फैसले सुनाती है और क्षत्रियों को धर्म युद्ध के लिए भी तैयार करती है. खिलजी जब गढ़ में राजा रतनसेन से मिलने आता है और खाना खाने शतरंज का खेल खेलने के बाद पद्मावती से मिलने की इच्छा जताता है तो राजा रतनसेन तलवार निकाल कर खिलजी की गर्दन पर रख देता है. बाद में पद्मावती राजा रतन सेन से कहती है कि जब तलवार गर्दन पर रख ही दी थी तो फिर चला भी देनी चाहिए थी. भंसाली ने पद्मावती को इस कदर व्यावहारिक बताया है. रतन सेन राजपूती मर्यादाओं और मेहमानों की इज्जत की बात करते हैं लेकिन पद्मावती कहती है कि तलवार चला देते तो इतिहास अपने हिसाब से इसकी व्याख्या करता. यहां पद्मावती पूरी तरह से रतनसेन पर भारी पड़ती है. इसी तरह खिलजी की कैद में कैदी राजा रतन सेन को छुड़ाने के लिए पद्मावती दिल्ली जाने का फैसला करती है और खिलजी से मिलने को भी तैयार हो जाती है. लेकिन एक शर्त के साथ कि राघव चेतन का सिर चित्तौड़ आने पर ही पालकी उठेगी . खिलजी पद्मावती को पाने के लिए इस कदर आसक्त है कि इस शर्त को मान लेता है. पद्मावती अपने सबसे बड़े दुश्मन का खात्मा करने में कामयाब हो जाती है.



एक अन्य सीन में राज्यगुरु राघव चेतन को राजा रतन सेन जेलखाने में डालने की सजा देता है तो पद्मावती इसका प्रतिवाद करती है और राघव चेतन को देश निकाला की सजा देने का सुझाव देती है. यानि कुल मिलाकर भंसाली ने पद्मावती को सबसे उपर रखा है. सबसे अच्छे डायलॉग भी पद्मावती के हिस्से ही आए हैं. जौहर के अंतिम सीन में तो भंसाली ने पद्मावती के त्याग, बलिदान, शौर्य, नेतृत्व क्षमता, क्षत्राणियों के कर्तव्य को बड़े ही भव्य तरीके से बताया है. यहां पद्मावती के खूबसूरत चेहरे पर जलती आग का अक्स पड़ता है जो पूरे चेहरे को गर्व और त्याग की प्रतिमूर्ति बना देता है. जौहर के लिए जाती पद्मावती, पीछे राजपूत महिलाओं की आन जिसमें बच्ची भी है और गर्भवती राजपूतनी भी, पद्मावती का आग के उस विशाल दरिया की तरफ बढ़ते जाना, पीछे जय भवानी के नारे लगना, खिलजी पर उसी जौहर की आग में तपे जले कोयले फेंका जाना, खिलजी का जलते कोयलों से झुलसता चेहरा और उधर उतना ही दमकता पद्मावती के चेहरे का क्लोज अप .....खिलजी हार रहा है, खिलजी हताश है, खिलजी सब कुछ जीत कर भी सब कुछ हार गया है. उधर पद्मावती जीत रही है, उसका तप जीत रहा है, उसका बलिदान नई गौरव गाथा लिख रहा है, पद्मावती सब कुछ खोकर भी जीत गई है. वह खुद को हजारों क्षत्राणियों के साथ दहकती आग के हवाले करती है और अमर हो जाती है.



अब बात की जाए विवादों की. डिस्कलेमर का जिक्र हम कर ही चुके. ड्रीम सीन की बात बहुत की जा रही है. ड्रीम सीन यानि राजपूत कर्णी सेना के अनुसार खिलजी का सपने में पद्मावती को प्यार करना. फिल्म में ड्रीम सीन नहीं है. एक सीन है जिसे देखकर लगता है कि शायद यहीं वो सीन पहले होगा जिसको लेकर इतना बवाल हो रहा है. यह सीन पद्मावती के नाम से जिक्र के साथ ही शुरू होता है लेकिन इसके बाद भंसाली ने बड़ी ही चतुराई से पूरे प्रसंग को प्रतीकात्मक बना दिया है. खिलजी को उसका मुंह लगा सेवक गफूर रक्कासाओं के किस्से सुनाते हैं, वह याद दिलाता है कि कैसे बादशाह उन रक्कासाओं के हुस्न के दिवाने हुआ करते थे. गफूर इसके बाद मिस्त्र की रक्कासा के स्टाइल के भी कुछ गीत गाता है. इसके बाद खिलजी आंखे बंद कर एक महिला को प्यार करने लगता है और गफूर परदा डाल देता है. अब इस सीन को सीधे-सीधे पद्मावती से जोड़ कर नहीं देखा सकता. फिल्म में खिलजी की पद्मावती की एक झलक देखने की शर्त को भी पूरा होते दिखाया गया है. लेकिन यहां भी पूरा सीन इस तरह फिल्माया गया है कि खिलजी को पद्मावती दिखाई देते हुए भी दिखाई नहीं देती. सफेद आसमान के आगे धूप की रोशनी में सफेद वस्त्रों में पदमावती और सफेद धुआं सा उठता हुआ. साफ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं के स्टाइल में. खिलजी तक रतन सेन से कहता है कि हम तो देख कर भी नहीं देख पाए पद्मावती को.


मूवी रिव्यू: भव्य है 'पद्मावत', ना कोई ड्रीम सीक्वेंस है ना ही कोई विवादित सीन


फिल्म में संवाद, भाषा, कॉस्टयूम आदि की तरफ ध्यान नहीं दिया गया है. पीरियड फिल्म बनाने पर इन पहलुओं पर बहुत ज्यादा जोर दिया जाता है लेकिन भंसाली ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया है. पद्मावती का एक डायलॉग है 'हम तो आपकी इजाजत के बिना मर भी नहीं सकते.' सवाल उठता है कि क्या कोई राजपूत महिला उस समय तेरहवीं सदी में इजाज़त शब्द जानती भी थी क्या? इसी तरह खिलजी राजा रतनसेन से कहता है कि वह निहत्था आया है इतने कठिन हिंदी शब्द का इस्तेमाल खिलजी करते होंगे इससे संदेह है. कुल मिलाकर फिल्म में एक तरफ अपनी खूबसूरती से राजा को रिझाने वाली और अपनी समझदारी से चित्तौड़ की इज्जत को बचाने वाली पद्मावती है तो दूसरी तरफ अत्याचारी , व्यभिचारी, दगाबाज, हत्यारा और क्रूर शासक अलाउद्दीन खिलजी है जो किसी भी कीमत पर पद्मावती को पा लेना चाहता है. इन दोनों के बीच शह और मात का खेल जारी रहता है. अंत में पद्मावती आग में तप कर निखर जाती है. खिलजी कोयले की आंच में झुलस जाता है. करणी सेना जिन मुद्दों को लेकर विरोध कर रही है वह सब फिल्म में नहीं है या फिऱ विरोध के बाद हटा लिया गया है. ऐसा अगर है तो इसे करणी सेना को अपनी जीत की तरह लेना चाहिए.