स्टार कास्ट: राहुल भट्ट, ऋचा चड्ढा, अदिती राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, विपिन शर्मा, विनीत कुमार
डायरेक्टर: सुधीर मिश्रा
रेटिंग: तीन स्टार (***)


जब भी 'देवदास' नाम की दस्तक होती है, अतीत के पन्नों पर सभी पिछली फिल्मों की यादें ताज़ा हो जाती है, चंद सेकेंड के लिए सीन्स, एक्शन और सारी कहानियां एक साथ खयालों की दुनिया से टकरा जाती हैं. यही वजह है कि सुधीर मिश्रा ने जब इस फिल्म का ऐलान किया तो कुछ अलग, नया और ताज़ा की उम्मीदें बंध गई. लेकिन सुधीर के सामने चुनौतियां बहुत थीं. संजय लीला भंसाली ने शाहरूख खान को देवदास बनाया. देव का नाम आते ही उनका चेहरा सामने आ जाता है. उसके बाद अनुराग कश्यप पहले ही फिल्म 'देव डी' में उसका मॉडर्न वर्जन दिखा चुके हैं. एकता कपूर भी वेब सीरिज 'देव डीडी' ला चुकी हैं जिसमें उन्होंने देवदास का लेडी वर्जन दिखाया है. इन उलझनों के बीच फिल्म देखी और आखिर में ये सारी दुविधाएं दूर हो गईं, क्योंकि सुधीर मिश्रा उम्मीद के मुताबिक अपनी 'दास देव' में नई और तरोताज़ा कहानी लेकर आए हैं, फिल्म कब किस ओर मुड़ेगी, कहां किधर को जाएगी. क्लाइमेक्स कहां पर चढ़ेगी और कहां पे जाकर खत्म होगी. आगे क्या होने वाला इसका गुमान नहीं कर पाएंगे. शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास देवदास से उन्होंने किरदार जरूर लिए हैं लेकिन उन्हें कहानी आधुनिक युग के पॉलिटिकल बैकग्राउंड में रची है. इसमें राजनीतिक विरासत बचाने की दौड़ के बीच प्यार-धोखा, खून-खराबा और शराब सब कुछ दिखाया है. इस कहानी में देव है लेकिन वो दास नहीं बनता. पारो भी बोल्ड है वो प्यार की वजह से कमजोर नहीं पड़ती. इस फिल्म की चंद्रमुखी सब कुछ फिक्स करती है लेकिन अपना इश्क फिक्स नहीं कर पाती. फिल्म का नैरेशन चांदनी ने ही किया है वो कहती है, 'इस दुनियां में हर चीज़ फिक्स हो सकती है, धंधे, रिश्ते और सियासत सिवाय इश्क के...' इस फिल्म के जरिए डायरेक्टर सुधीर मिश्रा ने इन दिनों देश में हो रही राजनीति पर जो कटाक्ष किया है वो सीधे दिल में जाकर लगती है.


कहानी


इस फिल्म की कहानी यूपी की पॉलिटिकल पृष्ठभूमि में रची गई है. जहां देव (राहुल भट्ट) को पापा की अचानक मौत के बाद विरासत संभालना है. पारो (रिचा चड्ढा) से उसे इतना प्यार है कि वो कहता है, 'मेरी हर बात पर शक करना पर इस बात पर नहीं कि मुझे तुमसे प्यार है.' देव और उसकी मां की देखभाल चाचा अवधेश (सौरभ शुक्ला) ने की है और इस कदर की है कि खुद उसकी बीवी और बच्चे भी इससे खफा रहते हैं. शराब के नशे में धुत्त और पारो के प्यार में पागल देव कर्ज में डूबा हुआ है. उसे ना तो अपना फ्यूचर का पता है और ना ही प्रेंजेट से कोई फर्क पड़ता है.



देव को संभालने के लिए या यूं कहें तो उसकी लाइफ को फिक्स करने के लिए चांदनी (अदिती राव हैदरी) यानि चंद्रमुखी की एंट्री होती है. चांदनी को वैसे तो राजनीति के नामी गिरामी लोग जानते हैं पर पहचानते नहीं. क्या चांदनी देव का पॉलिटिकल करियर फिक्स कर पाती है? देव को रास्ते पर लाने के लिए चांदनी जो जाल बुनती क्या पारो भी उसका निशाना बन जाती है? देव की ज़िंदगी फिक्स करने के चक्कर में कई ऐसी चीजें सामने आती हैं जिन्हें जानकर देव की रूंह कांप जाती है. देव को जो चीजें दिखती हैं वो राजनीतिक गलियारों के लिए तो आम बात है लेकिन उसके लिए नहीं.


एक्टिंग


देव की भूमिका में यहां राहुल भट्ट हैं जो इससे पहले 'फितूर', 'अगली' और 'जय गंगाजल' जैसी कई फिल्मों में नज़र आ चुके हैं. उनकी अच्छी बात ये है कि देव के किरदर के लिए उन्होंने किसी और एक्टर की नकल नहीं की है. उनकी एक्टिंग ओरिजिनल लगती है. अपने हर सीन में वो परफेक्ट लगे हैं. जब वो शराब पीते हैं तो शराबी लगते हैं और प्यार के सीन में रोमांटिक हीरो. ऋचा चड्ढा, सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के बीच वो उभर कर सामने आए हैं.


वहीं ऋचा चड़्ढा भी पारो के किरदार में जमी हैं. वो बोल्ड हैं और उनके हिस्से जितना है उन्होंने अच्छा किया है. लेकिन इमोशनल सीन्स में वो इंप्रेस नहीं कर पाई हैं.



अदिती राव हैदरी ने चांदनी के किरदार के हिसाब से ग्लैमरस हैं, खूबसूरत हैं पर एक्टिंग के मामले में बाकी किरदारों की अपेक्षा कमजोर लगी हैं.  सौरभ शुक्ला एक राजनेता के किरदार में जमे हैं. 'मुक्काबाज' में दिख चुके विनीत कुमार यहां दिखे हैं और जितना स्पेश उनको मिला है उतने में अच्छा किया है.


डायरेक्शन


इससे पहले 'हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी' और 'ये साली ज़िंदगी' जैसी फिल्में बनाने वाले सुधीर मिश्रा की इस फिल्म में भी उनका अपना टज दिखता है. उन्होंने मोहब्बत की तलाश में निकले और राजनीतिक विरासत के चक्रव्यूह में फंसे तीनों किरदारों के लिए कहानी का ऐसा जाल बुना है कि दर्शक आखिर तक कुछ कयास नहीं लगा सकता कि क्या होने वाला है. यही इस फिल्म की खासियत है. जिसे देवदास को लेकर अब तक तीन फिल्में बन चुकी हैं  और दर्शकों ने उन्हें काफी पसंद भी किया है. ऐसी फिल्मों के साथ हमेंशा ये डर होता है कि कहीं उसमें दोहराव ना हो. देवदास के किरदार को लेकर हमारे मन में जो पहले से एक इमेज बनी हुई है इसमें वो खत्म हो जाती है.



प्यार को तो उन्होंने दिखाया ही है साथ ही राजनीति में कितना कचड़ा भरा पड़ा है ये भी दिखाया है. राजनीति में जो घुस गया है वो मां-बाप, भाई के हत्यारों से भी मिलकर सत्ता चला सकता है. वो सामने वाले को हराने लिए किसी का चीरहरण करने से भी बाज नहीं आएगा. आजकल छवि बनाने के लिए गरीबों के घर जाना, लोगों से मिला और दलितों के घर खाना ये सब फिक्स होता है. चुकि ये उनकी कहानी का ही हिस्सा है तो फिल्म में आता है और चला जाता है लेकिन उस सीन के साथ ही आज के नेताओं की छवि तुरंत ही सामने आ जाती है. अच्छी बात ये है कि उन्होंने फिल्म में बहुत कुछ दिखाने को कोशिश की है लेकिन उसमें उलझे नहीं है. आखिर में फिल्म अपने लीड किरदारों और ज़िंदगी पर आकर ही खत्म होती है. उन्होंने इसमें पारो, देव और चांदनी तीनों  को दास बनने से बचा लिया है.


कमियां


फिल्म में कमियों की बात करें तो इसकी शुरूआत ही बहुत धीमी है. किरदारों की भूमिका बांधने में ही बहुत ज्यादा वक्त लग जाता है. अदिती राव हैदरी का नैरेशन अटपटा लगता है क्योंकि उनकी आवाज ऐसी डार्क फिल्म की कहानी के हिसाब से दमदार नहीं है. उनकी मधुर आवाज इस फिल्म को कमजोर बना देती है. गनीमत ये है कि नैरेशन कुछ समय के लिए ही है.


म्यूजिक


इसके गाने इस फिल्म को एक अलग लेवल पर ले जाते हैं. 'सहमी है धड़कन' गाना सुकून देने वाला है. आर्को और नवराज हंस की आवाज में 'रंगदारी' गाना इस फिल्म को और मजबूती देता है. स्वानंद किरकिरे की आवाज़ में 'आज़ाद' कर गाना अंदर तक झकझोरता है.



क्यों देखें


आप इस फिल्म को इसलिए देख सकते हैं क्योंकि इस देव का ऐसा वर्जन अब तक कोई और नहीं दिखा पाया है. करीब दो घंटे बीस मिनट की ये फिल्म कहीं भी आपको बोर नहीं करेगी.