नई दिल्ली: शरीर पर सूती की सफेद साड़ी, पैरों में हवाई चप्पल और ज़मीन पर कदम रख कर अपनी राजनीति करने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस वक्त देश की शीर्ष महिला नेताओं में गिनी जा रही हैं. ममता बेहद सादगी से अपना जीवन जीती हैं, लेकिन राजनीति में उनकी पहचान बेहद तल्ख नेता के तौर पर होती है. कहा जाता है कि वो अपने फैसलों के आगे किसी की नहीं सुनती और न ही उन्हें अपने किसी फैसले पर कभी पछतावा होता है. ये भी हकीकत है कि ममता का सियासी सफर लंबे संघर्ष से होकर गुज़रा है. बंगाल की सत्ता पर बरसों से काबिज़ वामदलों को राइटर्स बिल्डिंग से बाहर निकालने में ममता बनर्जी का सबसे बड़ा योगदान रहा. अब 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर ममता बनर्जी पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं. इस बार सत्ता पक्ष के साथ साथ विपक्ष की नज़रें भी ममता के प्रदर्शन पर हैं.


संघर्ष, ज़िद और जीत
ममता बनर्जी ने बचपन से ही राजनीतिक माहौल देखा था. उनके पिता प्रोमिलेश्वर बनर्जी एक बिज़नेसमैन थे, लेकिन वो कांग्रेस के साथ भी जुड़े हुए थे. यही वजह थी कि ममता ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत कांग्रेस (आई) से की. साल 1977 में ममता वेस्ट बंगाल यूथ कांग्रेस वर्किंग कमिटी से सदस्य के तौर पर जुड़ी थीं. 1979 में उन्हें वेस्ट बंगाल महिला कांग्रेस (आई) का जनरल सेक्रेट्री बनाया गया. लेकिन उनको बड़ी कामयाबी तब मिली जब साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए आम चुनाव में उन्होंने जाधवपुर सीट से दिग्गज सीपीएम नेता सोमनाथ चटर्जी को हरा दिया.



इस जीत के बाद ममता का कद बढ़ना तय था. नई सरकार बनते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ममता बनर्जी को ऑल इंडिया यूथ कांग्रेस का महासचीव बना दिया. हालांकि 1989 के लोकसभा चुनाव में वो जीत हासिल नहीं कर पाईं. लेकिन वो इस दौरान बंगाल में अपनी ज़मीन तैयार करने में जुटी रहीं. 1991 में हुए आम चुनाव में वो दूसरी बार लोकसभा पहुंची. इसके बाद ममता का जादू कभी फीका नहीं पड़ा.


1992 में कोलकाता के ब्रिगेड मैदान पर उन्होंने एक बड़ी रैली का आयोजन किया. इसी रैली में उन्होंने सबको हैरान करते हुए सरकार से इस्तीफे का एलान कर दिया और पूरी तरह से बंगाल की राजनीति में उतर गईं. हालांकि वो उसके बाद भी अगले 6 सालों तक कांग्रेस में रहीं. आखिरकार रिश्ते इतने खराब हो गए कि 1998 में उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाने का एलान कर दिया.


पाला बदलने में माहिर रही हैं ममता




  • पार्टी गठन के एक महीने बाद ही हुए आम चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी ने सात सीट पर जीत हासिल की.

  • 1999 में एक बार फिर लोकसभा चुनाव हुए, इस बार ममता ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और उसे एक सीट का फायदा हुआ.

  • 2001 में कांग्रेस (आई) के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव लड़ीं और 60 सीटों पर जीत हासिल की.

  • लगातार कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रहीं ममता बनर्जी 2004 में एक बार फिर बीजेपी के साथ आम चुनाव में उतरीं, लेकिन इस बार उनका ये दांव उलटा पड़ गया. वो महज़ एक सीट ही जीत पाईं, वो भी खुद की सीट.

  • 2006 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ जाना ममता के लिए नुकसान दायक रहा. इस बार वो सिर्फ 30 सीटें ही जीत सकीं.

  • 2009 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर ममता ने कांग्रेस का दामन थामा. इस बार 27 सीटों पर चुनाव लड़ी रही टीएमसी को 19 सीटों पर जीत मिली. यूपीए 2 में ममता बनर्जी दूसरी बार रेल मंत्री बनीं.

  • 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी ने 34 साल से सत्ता पर काबिज़ सीपीएम को बंगाल से उखाड़ फेंका. राज्य में उन्होंने 184 सीटें हासिल की और सीपीएम को महज़ 40 सीटें ही मिलीं.

  • 2014 के लोकसभा चुनाव में ममता और भी दमदार तरीके से वापस आईं. उन्होंनें 42 में से 34 सीटों पर कब्ज़ा किया.


क्या ममता की निगाहें प्रधानमंत्री पद पर हैं?
पिछले कुछ सालों में ममता बनर्जी अक्सर केंद्र के सामने डट कर खड़ी नज़र आई हैं. ममता पीएम नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले को बड़ा घोटाला और देश के साथ धोखा बताती आई हैं. जबकि जीएसटी को तो उन्होंने 'ग्रेट सेलफिश टैक्स' कह दिया था. इसके अलावा भी वो कई मुद्दों पर सरकार पर सीधा हमला करती नज़र आती हैं. हाल ही में ममता बनर्जी कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के समर्थन में सीबीआई के दुरुपयोग को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ धरने पर बैठ गईं थीं. ममता की राजनीति में धरना हमेशा एक बड़ा हथियार रहा है. यही वजह है कि अपने ही राज्य में धरने पर बैठने से उन्होंने एक पल के लिए भी गुरेज़ नहीं किया.



ममता धरने की धार को समझती हैं. सिंगूर और नंदीग्राम विवाद में सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन करने वाली ममता धरना देकर जनता के दिलों में उतर गई थीं. और तब जाकर उनके लिए लेफ्ट के किले को भेद पाना मुमकिन हुआ था. जानकार मानते हैं कि ममता काफी सालों से राज्य में सियासत कर रही हैं और अब उनकी नज़र नई दिल्ली पर है. हालांकि ममता ने कभी खुद को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार नहीं बताया है. मगर चुनाव बाद अगर तीसरा मोर्चा मज़बूती से उभरता है, तो ममता बनर्जी के लिए अच्छी खबर आ सकती है.


क्या ममता बनर्जी के अंदर प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब पल रहा है? इस सवाल पर कोलकाता के आलिया यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता पढ़ाने वाले डॉक्टर मोहम्मद रियाज़ कहते हैं, “उन्होंने अब तक एक बार भी आधिकारिक तौर पर नहीं बोला है. अगर कोई राजनीति में है, तो हर नेता की ख्वाहिश होती है. कोई बोलता है और कोई नहीं बोलता. अगर प्रधानमंत्री बनने का मौका मिले, तो कौन-सा ऐसा राजनेता होगा जो कहेगा कि मैं नहीं बनना चाहता. उन्होंने कभी बोला नहीं की मुझे पीएम बनना है. हां ये ज़रूर कहा है कि मोदी के खिलाफ हम थर्ड फ्रंट की सरकार बनाएंगे.”


महिला लीडरों में ममता मज़बूत
भारत की महिला नेताओं की फेहरिस्त में ममता बनर्जी कितनी बड़ी लीडर हैं? इस पर डॉक्टर रियाज़ कहते हैं, “मायावती बहुजन समाज से आती हैं और वो उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़े राज्य की चार बार सीएम रही हैं. इस हिसाब से तो वो सबसे ताकतवर नेता हैं, लेकिन सच ये है कि अभी वो पावर में नहीं हैं. उनकी पार्टी लगातार पिछले दो विधानसभा चुनाव हारी है. जयललीता अब रहीं नहीं. तो वो (ममता बनर्जी) विपक्ष में अभी सबसे ताकतवर महिला नेता हैं.”


मोहम्मद रियाज़ का कहना है कि सोनिया गांधी भी इस वक्त सत्ता से बाहर हैं. उन्होंने सत्ता पर काबिज़ बीजेपी नेता सुषमा स्वराज को लेकर कहा कि वो विदेश मंत्री हैं. लेकिन विपक्षी महिला नेताओं में इस वक्त रियाज के मुताबिक ममता बनर्जी ही सबसे बड़ी नेता हैं, क्योंकि वो एक राज्य की सीएम हैं.



स्ट्रीट फाइटर ममता
बात बात पर ममता बनर्जी का केंद्र से टकराना, उनकी ताकत है या नरेंद्र मोदी को कमज़ोर दिखाने की कोशिश? इस सवाल पर मोहम्मद रियाज़ का कहना है, “इसमें दो चीज़ें हैं. ममता बनर्जी कांग्रेस में यूथ लीडर के तौर पर उठी हैं. वो लंबे वक्त तक यूथ कांग्रेस की बड़ी लीडर रही हैं. उन्होंने अपना करियर विपक्ष में रहकर विरोध प्रदर्शनों के ज़रिए बनाया है. उन्होंने लोगों के लिए सड़कों पर लड़ाई की है. नंदीग्राम और सिंगूर के बाद तो वो सीएम ही बन गईं. लेकिन वो कांग्रेस के वक्त से ही स्ट्रीट पर लड़ती रही हैं.”


मोहम्मद रियाज़ ने इस बात की ओर भी इशारा किया कि अक्सर लोग ममता को लड़ाकू और मूडी कहते हैं. कहीं न कहीं ये हमारी पितृसत्ता समाज की मानसिकता को दर्शाता है. उन्होंने कहा, “पुरुष नेता भी दल बदलते हैं, विरोध प्रदर्शन करते हैं, लेकिन हम उनके लिए ऐसे शब्द कभी इस्तेमाल नहीं करते, मगर महिला के लिए कर लेते हैं. मतलब औरत है तो मूडी होगी. ये पितृसत्ता समाज को दर्शाता है.”


क्या ममता बनर्जी का पीएम नरेंद्र मोदी से टकराना खुद को ताकतवर दिखाने की कोशिश है? इस पर मोहम्मद रियाज़ कहते हैं कि राजनीति में यही होता है. अगर मैं आपको कमज़ोर दिखाउंगा तो मैं ताकतवर बनूंगा. और अगर मैं ताकतवर हूं तो आप कमज़ोर हैं. उन्होंने ये भी कहा कि ये फैक्ट है कि बंगाल में ममता सबसे ज्यादा मज़बूत नेता हैं.