भारत ने शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा मील का पत्थर हासिल किया है. पिछले दो सालों में स्कूल ड्रॉपआउट यानी स्कूल छोड़ने वाले छात्रों की संख्या में जबरदस्त कमी आई है. केंद्रीय सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के "Comprehensive Modular Survey: Education, 2025" के मुताबिक ड्रॉपआउट दर लगभग आधी हो गई है. यह शिक्षा क्षेत्र में हाल के वर्षों की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक मानी जा रही है.

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रिपोर्ट के अनुसार मध्य और उच्च स्तर की शिक्षा में ड्रॉपआउट दर में विशेष रूप से कमी आई है. आंकड़ों के मुताबिक सेकेंडरी स्तर पर ड्रॉपआउट दर 2022-23 में 13.8% थी, जो 2024-25 में घटकर 8.2% हो गई. मिडिल स्तर पर यह दर 8.1% से घटकर 3.5% हो गई. प्रिपरेटरी स्तर में यह दर 8.7% से घटकर 2.3% रह गई.

ड्रॉपआउट दर घटने के पीछे के कारण

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इस कमी में कई योजनाओं और सुधारों का योगदान रहा है. मिड-डे मील योजना ने छात्रों को पौष्टिक भोजन प्रदान किया और स्कूल में उपस्थित होने के लिए प्रेरित किया. आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों को वित्तीय सहायता देने से शिक्षा में रुचि बढ़ी. समग्र शिक्षा अभियान के तहत स्कूलों को बेहतर सुविधाएं दी गईं, जिससे बच्चों के लिए सीखना आसान हुआ. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) ने शिक्षा में लचीलापन लाया और सभी छात्रों को समान अवसर दिए. यह भी पढ़ें: MiG-21 की विदाई में चमकेगी स्क्वाड्रन लीडर प्रिया शर्मा की उड़ान, जानें उनकी पढ़ाई और सैलरी

राज्यों में स्कूल ड्रॉपआउट दर

कई राज्यों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है. उत्तर प्रदेश ने प्रिपरेटरी स्तर पर शून्य ड्रॉपआउट दर हासिल की, दिल्ली और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के साथ शामिल हुआ. झारखंड ने सेकेंडरी स्तर पर 2024-25 में शून्य ड्रॉपआउट दर दर्ज की. वहीं, पश्चिम बंगाल में सेकेंडरी स्तर पर सबसे अधिक ड्रॉपआउट दर 20.3% रही.

आगे की चुनौतियां

हालांकि ड्रॉपआउट दर में कमी सराहनीय है, फिर भी शिक्षा पर बढ़ती घरेलू खर्चें बड़ी चुनौती बने हुए हैं. ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूल के छात्रों का औसत वार्षिक खर्च 2,639 रुपये है, जबकि निजी स्कूलों में यह 19,554 रुपये है. शहरी इलाकों में सरकारी स्कूल में खर्च 4,128 रुपये और निजी स्कूल में 31,782 रुपये तक पहुंच जाता है. यह भी पढ़ें: 1 लाख नार्वेजियन क्रोन भारत में कितने? जानें नॉर्वे में काम करने का फायदा


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