बीते एक साल से लगातार पूरी दुनिया में प्रचलित सभी मुद्राओं के मुकाबले डॉलर की मजबूत स्थिति ने बाकी देशों की आर्थिक परेशानियां बढ़ा दी हैं. ग्लोबल इकोनॉमी में हमेशा से डॉलर की स्थिति मजबूत रही है. 70 के दशक में दुनियाभर के केंद्रीय बैंको के विदेशी मुद्रा भंडार में 80 फीसदी डॉलर था हालांकि वर्तमान में ये घट चुका है. लेकिन आज भी दुनियाभर के केंद्रीय बैंको में ये 60 फीसदी से ज्यादा है.


जबकि यूरो का हिस्सा महज 20 फीसदी है. यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि दिक्कत सिर्फ डॉलर की मजबूत स्थिति नहीं बल्कि अमेरिका में जिस तरह की मौद्रिक नीति अपनाई जा रही है, वो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के लिए किसी बुरी खबर से कम नहीं है. 


हालांकि पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था  जिन हालात से गुजर रही है उसके लिए पूरी तरह से सिर्फ डॉलर जिम्मेदारी नहीं है. लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि डॉलर ने इन हालातों का बद से बदतर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 


यही वजह है कि अब एक बार फिर से विश्व परिदृश्य पर डॉलर की दादागिरी को खत्म करने की कवायद तेज हो गई है. ये कोई पहली बार नहीं है जब किसी दूसरी मुद्रा ने डॉलर की जगह लेने की कोशिश हुई है.


लेकिन इस बार ये प्रयास कोई एक देश अकेला नहीं कर रहा है बल्कि दुनिया के कई देश मिलकर डॉलर का विकल्प तलाश करने और इसके एकाधिकार खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं. 


वित्तीय क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी क्रेडिट स्विस की ओर से 'द फ्यूचर ऑफ द मॉनटरी सिस्टम' नाम की हालिया रिपोर्ट में भी डॉलर की वैकल्पिक व्यवस्था या बहुध्रुवीय मौद्रिक व्यवस्था को विकसित करने की जरूरत पर जोर दिया गया है. 


हालांकि इस रिपोर्ट में साफ शब्दों में ये भी कहा गया है कि फिलहाल डॉलर की जगह लेने वाली कोई करेंसी अभी उम्मीदवार के तौर पर नजर नहीं आती है, न ही यूरो न कोई और. 


यही वजह है कि फिलहाल ग्लोबल करेंसी बनाने का विचार पूरी तरह से महज काल्पनिक है, और इसे हकीकत में तब्दील करने के लिए बहुत मजबूत भौगोलिक राजनीतिक सहयोग की जरूरत होगी. 




डॉलर का प्रभुत्व खत्म करने की कोशिश पहले भी चीन और रूस कर चुके हैं लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. ऐसे में ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या डॉलर की सत्ता को बदला जा सकता है या ऐसा सोचना गलत है. और अगर ऐसा करना संभव है तो किस तरह के कदम उठाने से हमें सफलता मिल सकती है?
 
इस सवाल पर आर्थिक मामलों के जानकार मनीष गुप्ता का कहना है कि दरअसल डॉलर के प्रभुत्व से अमेरिका सारे विश्व की लगाम अपने हाथ में रखना चाहता है. यही वजह है कि यूरो के आने के बाद भी उसे महत्व नहीं मिला जो उसको मिलना चाहिए था. 


मनीष  ने कहा कि आज भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार की प्रमुख मुद्रा डॉलर है और यही वजह है कि जब भी यूएस के नीति निर्धारक अपने देश के हित में फैसला लेते हैं तो जाहिर सी बात है डॉलर की मजबूती हमेशा उनका एजेंडा रहेगा.  ऐसे में लगभग सभी मुद्राएं डॉलर के मुकाबले में कमजोर होती रहेंगी जिस का प्रभाव उस देश के अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर पड़ता है. 


मनीष गुप्ता के मुताबिक  हमें यह समझना होगा विश्व की सत्ता अगर केंद्रीकृत होकर 1 या 2 देश या इन देशों के संगठन के हाथों जाएगी तो समूचे विश्व की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ेगा.


वहीं अर्थशास्त्री आकाश जिंदल ने डॉलर का प्रभुत्व खत्म होना ही चाहिए. ऐसा इसलिए नहीं है कि डॉलर कोई प्रामाणिक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा नहीं है. लेकिन ये बस व्यवहारिक रूप से बन गई है. 


जिंदल ने कहा कि इसके लिए कदम उठाने की जरूरत है. भारत के बारे में बात करते हुए उन्होने कहा कि भारत ने पहले से ही इस दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिया है. इंटरनेशनल ट्रेड में रुपए का इस्तेमाल शुरू करना इसी का उदाहरण है. 


उन्होंने कहा कि रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते डॉलर में उतार-चढ़ाव आया और जिसकी वजह से बाकी देशों की इकोनॉमी और करेंसी पर बुरा असर पड़ा. डॉलर में उतार चढ़ाव कुछ और नहीं बल्कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के हालात को बताता है लेकिन वहां के हालात की वजह से बाकी देश और भारत क्यों परेशान हो. इसीलिए डॉलर का प्रभुत्व खत्म होना ही चाहिए. 


इसको लेकर भारत को किस तरह के कदम उठाने चाहिए, इस बात का जवाब देते हुए आकाश जिंदल ने कहा कि रुपए में इंटरनेशनल व्यापार को बढ़ावा देना चाहिए और ये एकदम से नहीं होगा और न ही इससे रुपया डॉलर की जगह ले लेगा. लेकिन छोटे-छोटे कदम उठाकर भारत रुपए में अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा दे सकता है. इससे रुपए की स्थिति मजबूत होगी और डॉलर की स्थिति में असर जरूर पड़ेगा.


विश्व की अर्थव्यवस्था दुनिया भर के केंद्रीय बैंको के डॉलर की जगह किसी और करेंसी को लाने के लिए किये जाने वाले प्रयासों और भारत की भूमिका पर बात करते हुए आकाश जिंदल ने कहा कि भारत के इस तरह के कदमों में जरूर भाग लेना चाहिए.


इसके साथ ही उन्होंने चेताया कि विश्व में जब इस तरह के कदम उछाए जा रहे हैं तो सतर्क रहना होगा कि कहीं डॉलर की सत्ता खत्म होने के बाद हम किसी दूसरी इंटरनेशनल करंसी को न विकसित कर लें. 


उन्होंने कहा कि 4 साल पहले चीन ने इस तरह के प्रयास किये गए थे लेकिन उसे सफलता नहीं मिली थी तो ऐसे में हमें ध्यान देना होगा कि इस तरह की कोशिशों में भाग लेने वाले राष्ट्रों के खुद के हित होंगे. इसीलिए हमें न सिर्फ बाकी केंद्रीय बैंकों पर नजर रखनी है बल्कि अपनी करेंसी को भी आगे बढ़ाना है. 


रिजर्व बैंक पहले ही डिजिटल रुपया का पायलट प्रोजेक्ट ला चुका है तो ऐसे में हमें इस तरह से सबके साथ रहना होगा कि हमारा रुपया मजबूत करेंसी बनकर उभर सके.


डॉलर की मजबूती का असर
डॉलर की मजबूती के कारण बाकी करेंसी कमजोर हो जाती है और ऐसे में ये दुनियाभर की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ता है. सबसे बड़ा असर जिससे सभी देश घबराते हैं वो है आयात का महंगा होना. डॉलर की क़ीमत बढ़ने से आयात की जाने वाली चीज़ें महंगी हो जाती हैं जो मुद्रास्फीति यानी महंगाई को बढ़ा देती हैं. 


वहीं डॉलर के मजबूत होने से जिन देशों को अपने कर्ज़ डॉलर में चुकाने हैं, उनके लिए ये भुगतान महंगा हो जाता है और परिणामस्वरूप इन देशों पर वित्तीय दबाव बढ़ता है और इनकी खर्च करने की क्षमता घटती है.
 
इन्ही सब कारणों के चलते अब कई देश मिलकर बहुध्रुवीय मौद्रिक व्यवस्था को विकसित करना चाहते हैं. ये व्यवस्था धरातल पर नजर आएगी इस पर भी कई सवाल हैं. फिलहाल वर्तमानों हालातों को देखते हुए इस व्यवस्था को जरूरत माना जा रहा है.