औरतों में संकट से लड़ने की ताकत अलग ही किस्म की होती है. कोरोना संकट के दौर में भी यह साबित हो रहा है. दुनिया के जिन देशों का नेतृत्व महिलाओं ने संभाला है, उन्होंने कोरना के भयावह चक्र को मजबूती से पीछे की तरफ धकेला है. भले ही वह जर्मनी हो, या ताइवान- आइसलैंड हो या फिनलैंड और न्यूजीलैंड. इन सभी देशों की पहल की दुनिया भर में तारीफ हो रही है. बेशक, ये देश एक दूसरे से एकदम अलग-अलग जगहों पर स्थित हैं, एक यूरोप में है, दूसरा एशिया में और बाकी दक्षिणी प्रशांत मे. फिर भी इनमें एक बात एकदम एक जैसी है. इनमें शीर्ष नेतृत्व महिलाओ के हाथ में है. क्या हममें से ज्यादातर लोग यह जानते हैं कि विश्व में शीर्ष राजनीतिक पदों पर 7 फीसदी से भी कम औरतें हैं.


कोरोना संकट के दौर में सबसे ज्यादा तारीफ जिन देशों की हो रही है, उनमें से एक है ताइवान. वहां की राष्ट्रपति हैं, 61 साल की साई इंग वेन. ताइवान की एक स्वशासी द्वीप है, जिसकी आबादी लगभग ढाई करोड़ है. यहां कोरोना के 395 मामले सामने आए और 6 लोगों की मृत्यु हुई. क्योंकि ताइवान ने शुरुआती पहल की और संक्रमित लोगों की पहचान कर, उन्हें अलग-थलग कर दिया. जनरल ऑफ द अमेरिकान मेडिकल एसोसिएशन के पेपर बिग डेटा एनालिटिक्स, न्यू टेक्नोलॉजी एंड प्रोएक्टिव टेस्टिंग में कहा गया है कि ताइवान की रिस्पांस सबसे अच्छा रहा. उसने 124 तरीकों से कोरोना को हराया और अब वह यूरोपीय यूनियन और दूसरे देशों को फेस मास्क्स निर्यात कर रहा है. इसी तरह न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा एर्डर्न ने शुरुआत में ही लॉकडाउन की पहल की. उन्होंने देश में प्रवेश करने वालों को सेल्फ आइसोलेशन करने को कहा. जब देश में संक्रमण के मामले सिर्फ 6 थे, तभी उन्होंने पहल की. यह इन दोनों नेताओं के दृढ़ संकल्प का नतीजा था.


पर कोई कह सकता है कि ताइवान और न्यूजीलैंड जैसे छोटे से देशों का मुकाबला किसी बड़े देश से कैसे किया जा सकता है. पर ऐसा नहीं है. यह साबित किया है जर्मनी ने. वहां की चांसलर एंजेला मार्केल को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि जर्मनी का कोरोना टेस्टिंग प्रोग्राम यूरोप में सबसे बड़ा है, वहां हर हफ्ते साढ़े तीन लाख लोगों की टेस्टिंग हो रही है. इसकी वजह यह थी कि मार्केल ने सच्चाई को स्वीकार किया. उन्होंने अपने देशवासियों को कहा कि यह गंभीर वायरस है और देश की 70 प्रतिशत आबादी को संक्रमित कर सकती है. लोगों ने उनकी बात सुनी और हालात को गंभीरता से लिया.


कुछ नेताओं ने टेक्नोलॉजी का भरपूर सहारा लिया. आइसलैंड की प्रधानमंत्री कैटरिन जाकोब्सडोतीर ने अपने देश के सभी नागरिकों की फ्री टेस्टिंग की मदद ली. अधिकतर देश सक्रिय लक्षण वाले लोगों की ही टेस्टिंग कर रहे हैं, पर आइसलैंड ने सभी की टेस्टिंग की बात की. क्योंकि कोरोना के 25 फीसदी मरीजों में ऐसे कोई सक्रिय लक्षण नहीं होते. इसलिए आइसलैंड ने फ्री टेस्टिंग फॉर ऑल की बात की. इसका फायदा यह हुआ कि आइसलैंड में न तो कैफे, पब्स, दुकानें बंद करनी पड़ी न ही स्कूल. वहां यात्रा करने की भी कोई मनाही नहीं. पर्यटकों का भी स्वागत किया जा रहा है. फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मरीन दुनिया की सबसे कम उम्र की विमेन स्टेट लीडर हैं. उन्होंने देश की कोरोना टेस्टिंग क्षमता को दुगुना किया है और एंटीबॉडी टेस्टिंग की भी शुरुआत की है. इसके अलावा वह कोरोना के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर्स का इस्तेमाल कर रही हैं.


नार्वे की प्रधानमंत्री एर्ना सोलबर्ग और डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेट फ्रेडरिक्सन ने स्नेह दर्शाया. टीवी के माध्यम से सोलबर्ग ने छोटे बच्चों से बातें कीं. उनकी इस बातचीत में कोई एडल्ट शामिल नहीं था. उन्होंने बच्चों से कहा, घबराना कोई खराब बात नहीं. अगर तुम्हें डर लग रहा है तो ठीक है. यह किसी महिला नेता के लिए क्या मुश्किल है कि वह बच्चों से प्यार से बात करें. इसी तरह डेनमार्क की प्रधानमंत्री फ्रेडरिक्सन ने देश के टॉप जेनजेड इंफ्लूएंसर के इंस्टाग्राम एकाउंट पर आकर टीन्स से चुटकी ली, तुम्हें बाहर जाकर पार्टी करना पसंद है, पर प्लीज घरों में रहो और अपने माता-पिता को कुछ दिन और बर्दाश्त करो. पहले पहल फ्रेडरिक्सन का सबने मजाक उड़ाया कि वह बहुत ओवर रिएक्ट कर रही हैं, लेकिन फिर लोगों को प्रधानमंत्री की शुरुआती पहल दमदार लगी.


महिला नेताओं की पहल पर बहुत से समाजशास्त्री विचार भी कर रहे हैं. उनका पूछना है कि महिला नेताओं में ऐसी क्या बात होती है कि वे संकट से ज्यादा अच्छी तरह जूझती हैं. न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की सोशियोलॉजी की प्रोफेसर कैथलीन जर्नसन कहती हैं कि संकट से लड़ने का एक तरीका होता है कंपैशन यानी सहानुभूति का इस्तेमाल करना. यह कोई स्त्रियोचित गुण नहीं, मानवीय गुण है. अगर कोई भी नेता ताकत और सहानुभूति का इस्तेमाल करे, तो वह सफल हो सकता है. खास बात यह है कि नॉर्डिक देशों में लोग अपने शीर्ष नेतृत्व पर बहुत विश्वास करते हैं. वहां की नेता अपने लोगों से संवाद स्थापित करना जानती हैं. यह किसी पुरुष नेता में भी हो सकता है, जैसे भारत में प्रधानमंत्री के एक आह्वान पर लोगों ने दिए जलाकर, तालियां बजाकर एकजुटता दिखाई.


वैसे महिला नेताओं के लिए काम करना इसलिए भी जरूरी होता है क्योंकि उनसे लोगों की उम्मीदें भी अलग होती हैं. वे कई बाधाएं पार करके किसी मुकाम पर पहुंचती हैं. इसलिए अपनी क्षमता साबित करने का माद्दा भी उनमें अधिक होता है. इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन और युनाइटेड नेशंस के एक जनवरी, 2020 तक के आंकड़े कहते हैं कि 152 इलेक्टेड स्टेट लीडर्स में से सिर्फ 10 महिलाएं हैं. दुनिया भर की सांसदों में 75 फीसदी पुरुष हैं, मैनेजमेंट में फैसले लेने वाले पदों पर 73 फीसदी पुरुष हैं और मेनस्ट्रीम न्यूज मीडिया में भी पुरुषों की मौजूदगी 76 फीसदी है.


तो, हमनें महिलाओं को सिर्फ एक चौथाई जगहों पर सिकुड़कर बैठने को मजबूर किया है. अगर इस महामारी को नियंत्रित करने में महिला नेता आगे निकल जाती हैं तो यह समझना होगा कि दुनिया भर में लोगों की जान बचानी है तो औरतों को और मौके देने होंगे. वरना, डर यूं ही बना रहेगा.


(उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)