कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने पीड़ित किसान परिवारों से मिलने जाने की जिद पर अड़े रहकर पुलिस के सामने जो रौद्र रुप दिखाया है, उसने 44 बरस पहले उनकी दादी के उस वाकये की याद ताजा कर दी है, जब इंदिरा गांधी बेलछी नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवारों से मिलने रात के अंधेरे में ही हाथी पर सवार होकर उस गांव जा पहुंची थीं. उस एक घटना ने ही कांग्रेसियों में इतनी जान फूंक दी थी कि महज ढाई साल के भीतर ही इंदिरा गांधी दोबारा फर्श से अर्श पर आ गईं थीं.


अगर यूपी सरकार ने प्रियंका को लखीमपुर खीरी जाने दिया होता, तो शायद न तो वह खबर इतनी बड़ी सुर्खी बन पाती और न ही कांग्रेस को उसका कोई बहुत सियासी फायदा ही मिल पाता. लेकिन प्रियंका गांधी की गिरफ्तारी आज देश-विदेश के मीडिया की सुर्खी में है और उनके सख्त तेवरों ने पार्टी में कुछ ऐसा नया जोश भरने का काम किया है, जिसमें उनके भाई राहुल गांधी अब तक नाकाम ही साबित हो पा रहे थे. गिरफ्तारी के बाद अस्थायी जेल में तब्दील किये गए सीतापुर के गेस्ट हाउस के अपने कमरे में झाड़ू लगाते हुए का प्रियंका का जो वीडियो सामने आया है, उसके गहरे सियासी मायने भी हैं. ये एक तरह से निराश होकर घर बैठ चुके कांग्रेसियों को फिर से चुनावी लड़ाई के लिए तैयार रहने का संदेश है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि प्रियंका की ये तल्खी और 'झाड़ू की सियासत' क्या यूपी के चुनाव में कांग्रेस को एक बड़ी ताकत बनकर उभार सकेगी?


दरअसल, विपक्ष की राजनीति करते हुए किसी नेता का गिरफ्तार होना कोई नई या बड़ी बात नहीं है. लेकिन प्रियंका गाँधी की गिरफ्तारी को थोड़ा अलग नजरिये से देखना इसलिये जरुरी है कि उन्होंने इस मौके का सियासी फायदा उठाने के लिए अपना एक अलग ही चंडी रुप धारण कर लिया क्योंकि वे जानती थीं कि तमाम न्यूज़ चैनल इस घटना को अपने कैमरे में  कैद कर रहे हैं. शायद इसीलिए उन्होंने पुलिस वालों से तीखी बहस करते हुए कहा, "अगर इस गाड़ी में मुझे ले जाओगे तो मेरा अपहरण करोगे. जबरदस्ती धकेलकर ले जा रहे हो मुझे, तुम्हारा कोई हक नहीं है. छू के देखो मुझे..." प्रियंका का ये अंदाज शायद पहली बार देखने को मिला है और इसके जरिये ये संदेश देने की कोशिश की है कि वे भी अपनी दादी की तरह सत्ता से बाहर रहकर सत्ता में बैठे लोगों की ताकत से डरने वाली नहीं हैं.


वैसे विपक्ष में रहते हुए सरकार के खिलाफ अपना विरोध जताने के लिए कई नेताओं ने आम आदमी से जुड़े साधनों को एक प्रयोग के रुप में अपनाया है, लेकिन अब तक इसका अमिट रिकॉर्ड इंदिरा गांधी के नाम पर ही है. साल 1977 में कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो चुकी थी. मोरारजी देसाई की सरकार बने महज़ नौ महीने ही हुए थे कि बिहार के पटना जिले के दूरदराज इलाके में बसे बेलछी गांव में 11 दलितों का नरसंहार कर दिया गया. उन्हें जिंदा जला देने की ये ऐसी जघन्य घटना थी, जिसने तब दिल्ली के सिंहासन को भी हिलाकर रख दिया था.


जनता की नब्ज पकड़ने में माहिर इंदिरा गांधी ने मौका ताड़ा और दिल्ली से हवाई जहाज के जरिए सीधे पटना और वहां से कार से बिहार शरीफ पहुंच गईं. तब तक शाम ढल गई और मौसम बेहद खराब था. नौबत इंदिरा गांधी के वहीं फंस कर रह जाने की आ गई लेकिन वे रात में ही बेलछी पहुंचने की जिद पर डटी रहीं. स्थानीय कांग्रेसियों ने बहुत समझाया कि आगे रास्ता एकदम कच्चा और पानी से लबालब है लेकिन वे पैदल ही चल पड़ीं. मजबूरन साथी नेताओं को उन्हें जीप में ले जाना पड़ा मगर जीप कीचड़ में फंस गई. फिर उन्हें ट्रैक्टर में बैठाया गया तो वह भी मिट्टी के दलदल  में फंस गया.


इंदिरा तब भी अपनी धोती थामकर पैदल ही चल दीं तो किसी साथी ने हाथी मंगाकर इंदिरा गांधी व उनकी महिला साथी को हाथी की पीठ पर सवार किया. बिना हौदे के हाथी की पीठ पर उस उबड़-खाबड़ रास्ते में इंदिरा गांधी ने बियाबान अंधेरी रात में जान हथेली पर लेकर पूरे साढ़े तीन घंटे लंबा सफर तय किया.


वे जब बेलछी पहुंची तो खौफजदा दलितों को ही दिलासा नहीं हुआ बल्कि वे पूरी दुनिया में सुर्खियों में छा गईं. हाथी पर सवार उनकी तस्वीर देश-दुनिया के अखबारों की सुर्खी बन गई. इसका नतीजा ये हुआ कि उनकी हार के सदमे से घर में दुबके कांग्रेस कार्यकर्ता वापस सड़कों पर निकल आये. इंदिरा के इस दुस्साहस को ढाई साल के भीतर ही जनता पार्टी सरकार के पतन और 1980 के मध्यावधि चुनाव में सत्ता में उनकी वापसी का एक निर्णायक कदम माना जाता है. लिहाज़ा, अब देखना ये है कि प्रियंका गांधी की हिम्मत से भरी ये सियासत अपनी दादी का इतिहास दोहराने में किस हद तक कामयाब हो पाती है?


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