देश की न्यायपालिका के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाने के लिए इतनी मुखरता से आवाज उठाई है और इसके लिए उन्होंने समाजवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स का उदाहरण देने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई. प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमना ने न्यायपालिका में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिए जाने का सुझाव देकर केंद्र सरकार के सामने एक नई चुनौती पेश कर दी है, क्योंकि इसके लिए कानून तो आखिरकार सरकार को ही बनाना है.


दरअसल, ये एक ऐसी मांग है जिसे अगर सरकार मान लेती है, तो ये भानुमति का पिटारा खोलने जैसी ही होगी. क्योंकि इसके बाद संसद और राज्यों की विधानसभाओं में भी 50 फीसदी आरक्षण देने की मांग महिलाएं करेंगी. यही नहीं, फिर केंद्र से लेकर हर राज्य सरकार को अपने मंत्रिमंडल में भी 50 फीसदी हिस्सेदारी महिलाओं को देनी पड़ेगी, जो कोई भी सरकार नहीं देना चाहती.


हालांकि तमाम राजनीतिक दल समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व दिए जाने की वकालत तो करते हैं लेकिन बीजेपी समेत कोई भी विपक्षी दल उन्हें 50 फीसदी तो छोड़ो, 33 फीसदी की हिस्सेदारी देने को भी तैयार नहीं है. इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि संसद व विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण देने संबंधी महिला आरक्षण बिल पिछले कई सालों से यूं ही लटका पड़ा है. पिछले सात साल में मोदी सरकार भी इस पर आम सहमति नहीं बना सकी है. लिहाज़ा सरकार किसी भी सूरत में न तो चाहेगी और न ही ऐसा करेगी कि न्यायपालिका में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया जाये.


बरसों पहले कार्ल मार्क्स ने 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' का नारा देकर समाज में एक नई क्रांति की शुरुआत की थी. उसी स्लोगन का उदाहरण देते हुए चीफ जस्टिस रमना ने महिला वकीलों को एकजुट होने का आव्हान करते हुए अहसास दिलाया है कि 50 फीसदी रिजर्वेशन उनका अधिकार है, न कि कोई भीख. जाहिर है कि उन्होंने ये बातें कहकर महिला वकीलों को इसके लिए लड़ाई छेड़ने का रास्ता दिखा दिया है. ये भी तय है कि उनकी बात का असर जरुर होगा और राजधानी दिल्ली से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों से इसकी आवाज उठने लगेगीं, जो आने वाले दिनों में एक आंदोलन का रुप ले सकती हैं.इसके साथ ही उन्होंने सरकार से एक और भी सिफारिश कर डाली है कि महिलाओं को देश भर के लॉ स्कूलों में भी रिजर्वेशन दिया जाये.


चीफ जस्टिस ने कहा कि "महिलाओं को एक होने की जरूरत है.मैं यह कहना चाहता हूं कि आप खुश रहें आपको रोने की जरूरत नहीं है लेकिन आपके अंदर एक जज्बा होना चाहिए और अपने लिए आवाज उठाएं और जूडिशरी में 50 फीसदी रिजर्वेशन की जरूरत बताएं. महिलाओं को इसके लिए आवाज उठानी चाहिए. महिलाओं को हजारों सालों से दबाया जा रहा है और ये वक्त है कि हम इस बात को महसूस करें."


उल्लेखनीय है कि फिलहाल देश की निचली अदालतों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 30 फीसदी से भी कम है. जबकि हाई कोर्ट में यह 11 फीसदी के आसपास है और सुप्रीम कोर्ट में अभी नियुक्ति के बाद 33 जजों में सिर्फ चार महिलाएं हैं. देश भर में बार कौंसिल में रजिस्टर्ड  कुल वकीलों की संख्या 17 लाख है और इनमें सिर्फ 15 फीसदी यानी तकरीबन दो लाख 55 हजार महिला वकील हैं. स्टेट बार काउंसिल में महिला अधिकारियों का प्रतिनिधित्व तो महज दो फीसदी ही है. हर गांव के हर घर में शौचालय का सपना पूरा करने वाली सरकार के लिए ये भी बड़ी चिंता का विषय होना चाहिए कि देश भर की कुल 6 हजार अदालतों में से आज भी 22 फीसदी ऐसी हैं,जहां महिलाओं के लिए  टॉयलेट जैसी जरुरी सुविधा तक नहीं है.


करीब चार दशक पहले हुए भागलपुर के आंखफोड़वा कांड की न्यायिक जांच कराने की मांग को लेकर  सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका पर जो फैसला सुनाया गया था,उसे सही मायने में देश में ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म यानी न्यायिक सक्रियता की शुरुआत माना जाता है. उसके बाद से ही इसमें काफी तेजी आई और अब तो हर छोटी समस्या का हल भी सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद ही हो पाता है. लेकिन न्यायपालिका का ये दखल सरकारों को लगातार चुभता आया है. लिहाज़ा, कह सकते हैं कि चीफ जस्टिस का ये सुझाव भी केंद्र सरकार के लिए आंखों की किरकिरी ही बनेगा.



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