आखिरकार पंजाब में कांग्रेस की कलह उस मुकाम तक आ पहुंची है जिसे संभाल पाना अब पार्टी आलाकमान के बूते से भी बाहर होता दिख रहा है. हालांकि पंजाब से लग रहे झटकों के बीच कांग्रेस के लिए थोड़े सुकून की बात ये रही कि जेएनयू की छात्र राजनीति से अपनी अलग पहचान बनाने वाले कन्हैया कुमार को आज उसका साथ मिल गया. वे युवाओं के बीच लोकप्रिय चेहरा हैं, लिहाज़ा कांग्रेस को उम्मीद है कि इस चेहरे के दम पर वह युवा पीढ़ी के बीच अपनी जमीन मजबूत कर सकती है.


लेकिन पंजाब में पार्टी के भीतर मचा घमासान कांग्रेस का क्या हश्र करने वाला है, इसके संकेत अब साफ मिलने लगे हैं .कैप्टन अमरिंदर सिंह पर दबाव डालकर लिया गया इस्तीफा पार्टी के लिए एक साथ इतनी सारी आफ़त ले आयेगा, इसका अहसास उस वक़्त गांधी परिवार को भले ही नहीं होगा लेकिन अब समझ आ गया होगा कि वो एक गलत फैसला था. अपनी अपरिपक्व राजनीति व जिद्दी बर्ताव के लिए मशहूर हो चुके नवजोत सिंह सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष पद से दिए गए इस्तीफे ने कांग्रेस की रही-सही साख पर भी ऐसा बट्टा लगा दिया है, जिसकी कीमत पार्टी को पांच महीने बाद होने वाले चुनावों में चुकानी पड़ेगी.


दरअसल, सिद्धू के अब तक के सियासी सफर पर गौर करें तो उनकी पूरी राजनीति हल्के स्तर के कॉमेडी शो से ज्यादा कुछ नहीं है. न उसमें गंभीरताहै ,न परिपक्वता और न ही जिम्मेदारी का अहसास, जो कि किसी भी पार्टी के एक नेता में होना जरुरी है, खासतौर से जब उसके हाथ में पूरे प्रदेश की कमान हो. कांग्रेस में अकेले कैप्टन अमरिन्दर सिंह ही हैं जो सिद्धू की नस-नस से वाकिफ़ हैं और वे लगातार पार्टी आलाकमान को आगाह भी करते रहे लेकिन उनकी सलाह को नज़रंदाज़ किया गया. सिद्धू के इस्तीफे के ठीक बाद कैप्टन ने ट्वीट कर कहा, "मैंने आपसे कहा था... वह स्थिर व्यक्ति नहीं है और सीमावर्ती राज्य पंजाब के लिए वह उपयुक्त नहीं है." शायद, अब दस,जनपथ को भी यकीन हो जाएगा कि कैप्टन का आकलन बिल्कुल सही था और अब सीएम पद पर एक दलित चेहरा होने के बावजूद पंजाब का किला बचाना,उतना आसान नहीं रह गया है.


वैसे तो ये बिल्कुल सही है कि चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनवाने में सिद्धू की ही सारी भूमिका रही है. बताते हैं कि सिद्धू नये मंत्रियों के विभागों का बंटवारा अपने हिसाब से करवाना चाहते थे लेकिन मंत्री रहते हुए ही जो सत्ता की ताकत का स्वाद चख चुका हो, वो मुख्यमंत्री बनने के बाद किसी और का रबर स्टैम्प आखिर कैसे बन जायेगा. इसलिए चन्नी ने मंत्रियों के विभागों से लेकर आला अफसरों के तबादलों तक में सिद्धू की बात नहीं मानी. नतीजा ये हुआ कि खुंदकी सिद्धू ने इस्तीफा देकर अपनी जो भड़ास निकाली है, उससे उन्हें भले ही कोई फर्क न पड़े लेकिन कांग्रेस को उसका खासा नुकसान उठाना पड़ेगा.


वहीं कन्हैया कुमार के कांग्रेस में शामिल होने से राहुल गांधी समेत बाकी नेताओं की बांछें खिल उठी हैं. उन्हें लगता है कि वे डूबती हुई नाव के ऐसे खेवनहार बन सकते हैं जो पार्टी को किनारे तक ले आएंगे. हालांकि वे जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष सीपीआई की छात्र इकाई एसएफआई के बैनर पर ही निर्वाचित हुए थे. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में सीपीआई ने उन्हें बिहार से उम्मीदवार बनाया था लेकिन अपनी सभाओं में हजारों की भीड़ जुटाने वाले कन्हैया चुनाव हार गये थे. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय राजनीति के इतिहास व संविधान की उन्हें गहरी समझ है. भाषण देने की अपनी कला से वे युवाओं को प्रभावित भी करते हैं और अक्सर उनकी सभा में युवाओं की ही भीड़ जुटती है.


लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इस भीड़ को किस हद तक वे वोटों में तब्दील करा पाते हैं? अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा का चुनाव-प्रचार उनका पहला इम्तिहान होगा और वही इसका सही जवाब देगा.


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